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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 23 June-2017 SHRUTSAGAR कारण विण नाहिण अंगोल, वस्त्र धोवा नावु रंगरोल; नोमैव्रतै कहीइं ए सार, सामाइक पडिकमणों उदार ॥१५॥ ढाळ ॥१॥ ॥३॥ एक वरसै रे वीस करूं हुं सार रे, दशमों व्रतरे पालतां होइ भवपार रे; सत्तावीस रे द्रव्य उगणच्यालीस ते जाणि रे. त्रीस कोस ज रे वलि जल शत जाणि रे विगय पांच ज रे जोडा पांच पग वाणही, अधर सेर ज सघलो बोल कहुं सही; कुसुमं सेर एक रे वेस पहिलं दस दिन व्रतें, साडात्रीस ज रे राखुं नवा निजघरि व्रतें ॥२॥ वाहण जाति ज रे पांच राखं ते अतिभली, शय्यादिक रे पाथरणा सहित वली; आठ राखुं रे अवर परिहरि सों मनरुंली, पांच सेर ज कुसुमादिक रूडी कली विलेपन रे अंग धरू सेर एक रे, मासै करीइ रे नाहण च्यारि विवेक रे; अंघोल वली रे मासे कीजै वीस रे. आठमि चोउदाशि रे टालीजें निसदीस रे जीव जीवैरे दिवसै हु ब्रह्म धरुं, परभाति रे चउद नीम संख्या करुं; एकादशमै रे पोसह पंच वरसै करुं, बारमे व्रत रे संवीभाग दोइ करूं अणमिलतै रे होइ सामि ते हु सार रे, दान देतां रे लहीइ भव नो पार रे; समकित मूल रे बारव्रतइ मली धरे, पंचलोकनी रे साखि भली मइ कीधरे ॥६॥ ढाळ पनर करमादान जे कह्या, तेहवि संक्षेपइ जी; अंगालु कर्म परिहरि पहिलोरूं, गुरुशाक्षि शुभ हेतइ जी॥१॥ ___ पापकर्म भव परिहरो। आंकणी। लुंगडुंग ज पांचसइ, रंगावों घरकामइ जी; व्यापार हेतइ नवि करूं, धूपेल दश सेर मानइ जी ॥२॥ पापकर्म० ॥४॥ ॥५॥ For Private and Personal Use Only
SR No.525323
Book TitleShrutsagar 2017 05 Volume 04 Issue 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2017
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size6 MB
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