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फरवरी-२०१६
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श्रुतसागर
लेखो में से प्राप्त होते हैं । इसका प्रथम उल्लेख हमें “करक्का सुर्वणवर्षा” की बडौदा प्लेट में से प्राप्त होता है । इस प्लेट का समय शक संवत् ७३४ (८१२ A.D) मालूम होता है। इस प्लेट के मुताबिक अंकोटक वहाँ बसे हुवे ८४ ग्राम का प्रसाशकीय मुख्यालय था । इसका दूसरा प्रमाण डॉ. सुब्बा राव के द्वारा किये उत्खनन कार्य के दरम्यान उन्हें प्राप्त हुए क्षत्रपकालीन सिक्कों से प्राप्त होता है। इन सिक्कों के आधार पर यह जाना गया है कि अंकोटक नगर ई. सन् केन्लेन्डर कि शुरूआत के समय अस्तित्व में था । अन्य एक प्रमाण श्री देसाई द्वारा प्राप्त किये गये मिट्टी के घडे से प्राप्त होता है। इस मिट्टी के घडे के ऊपर प्रारम्भिक ब्राह्मी लिपि का 'म' चिन्ह प्राप्त हुआ है। इस के आधार पर यह माना जाता है की अंकोटक संभवतः ई.स पूर्वे दूसरी शताब्ती में भी अस्तित्व मे था । यह सारे प्रमाण अकोटा नगर की प्राचीनता दर्शाते हैं।
इसके उपरांत श्री एम.डी.देसाई ने सन् १९४९ में कांस्य के बने घडे व हेन्डल की खोज की। यह घड़ा बडौदा म्यूजियम में संरक्षित है। यह कांस्य का घडा तथा हेन्डल रोमन साम्राज्य से आयात किये हुए पुराने टुकडे हैं। इन अवशेषों से पता चलता है की रोमन साम्राज्य तथा भारत के पश्चिमी नगरों के मध्य सामान्य व्यापारीक संबंध थे।
अकोटा से प्राप्त शिलालेख के आधार पर पता चलता है की वहाँ पर एक मंदिर था। प्राप्त प्रमाण यह दर्शाते हैं कि यह मंदिर जैन गच्छ अथवा साधु से संबंधित हो सकता है। अकोटा में कांस्य से बनायी जैनमूर्तियाँ विपुल प्रमाण में प्राप्त हुई हैं। अकोटा से प्राप्त कांस्य प्रतिमाओं को 'Akota Bronze' नाम से जाना जाता है ।
इस स्थान से प्राप्त प्रतिमाओं को खास तरीके से तैयार किया जाता था जिस प्रक्रिया को ‘Lost Wax Process' नाम से जाना जाता है । आज भी इस प्रक्रिया द्वारा प्रतिमाएँ तैयार कि जाती हैं । प्रतिमा तैयार करने की संक्षिप्त प्रक्रिया यह है कि, प्रथम मोम के द्वारा प्रतिमा के नमूने को तैयार किया जाता था। उसके बाद उस नमूने को तीन बार मिट्टी से प्रतिलेपित किया जाता था। ढोल तैयार होने के बाद मोम को पिगला के निकाल लिया जाता था तथा
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