Book Title: Shrutsagar 2014 09 Volume 01 04
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 27
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर 25 करने से उपर्युक्त सूचनाएँ तुरन्त प्राप्त हो सकती है. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सितम्बर-२०१४ यदि किसीको आचार्य सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी द्वारा रचित द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका के ऊपर आचार्य लावण्यसूरि द्वारा रचित किरणावली वृत्ति चाहिए तो कृति नाम में 'द्वात्रिंशिका' टाईप कर यह शब्द नाम में 'कहीं भी आया हो, ऐसा विकल्प चयन करते हैं और विद्वान नाम में लावण्यसूरि टाईप कर शोध करते हैं, तो ऐसी सभी कृतियों की सूची कम्प्यूटर स्क्रीन पर आ जाती है. जिसके नाम में आगे, पीछे या बीच में, कहीं भी 'द्वात्रिंशिका' शब्द आया हो. उस सूची में कर्सर को ऊपर-नीचे ले जाने से द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका नामक कृति मिल जाती है. उसके ऊपर कर्सर रखकर उसके सामने विद्वान के कोष्ठक में जहाँ भी लावण्यसूरि का नाम मिले, तो वह कृति अवश्य ही द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका की किरणावली वृत्ति ही होगी. उस कृति से जुड़े हुए प्रकाशनों, हस्तप्रतों तथा अंकों की सूचनाएँ व जिस पृष्ठ पर वह कृति उपलब्ध हो, उसकी जानकारी भी प्राप्त की जा सकती है. ये सूचनाएँ विद्वानों और संशोधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती हैं. इसके अतिरिक्त मूल कृति पर कर्सर रखकर उसके ऊपर लिखी गई टीका, अनुवाद, टबार्थ आदि जितनी भी पुत्र कृतियाँ ज्ञानमन्दिर में संग्रहित हैं, वे सभी कृतियाँ उसकी शाखा-प्रतिशाखा सहित सम्पूर्ण वंशवृक्ष के रूप में देखने में आती हैं. उसमें से वांछित पुत्रकृति पर कर्सर रखकर उससे जुडे प्रकाशन, हस्तप्रत अथवा अंक तथा उन सभी पुस्तकों के नंबर, हस्तप्रतों के नंबर आदि देखने को मिलते हैं. इस प्रकार वह कृति जिस प्रकाशन, हस्तप्रत अथवा सामायिक के साथ जुड़ी हुई हो, वह वाचक को उपलब्ध कराया जाता है. कृति परिवार का निर्माण व कृति-वंश परिचय : कृति का वंशवृक्ष बनाने हेतु लायब्रेरी प्रोग्राम में सर्वप्रथम मूल कृति की प्रविष्टि की जाती है. उसके बाद उसे योग्य प्रकाशन, हस्तप्रत, सामायिक आदि के साथ जोड़ दिया जाता है. मूल कृति को पिता, अर्थात् कृति-परिवार का मुखिया माना जाता है तथा उस कृति के अनुवाद, टीका, विवेचन, टबार्थ, बालावबोध आदि को उसकी पुत्र-पौत्रादि सन्ततिरूप कृति मानी जाती है. For Private and Personal Use Only उदाहरण के लिए भद्रबाहुस्वामी के द्वारा रचित कल्पसूत्र को मूल (पिता कृति) माना गया है, उपाध्याय विनयविजयजी द्वारा रचित सुबोधिका टीका को उसका पुत्र

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