Book Title: Shrutsagar 2014 08 Volume 01 03
Author(s): Kanubhai L Shah
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 25
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR AUGUST-2014 लिपियों का विकास होता चला गया। लिपि-विज्ञानियों ने चित्रों एवं लकीरों को विकसित कर वर्णाकार प्रदान किया और इन आकृतियों को लिपि नाम दिया गया। धीरे-धीरे विविध भाषाओं की अपनी-अपनी लिपियाँ बनने लगीं। कुछ भाषाओं के उच्चारण-वैविध्य के कारण उनकी अपनी लिपियाँ विकसित हईं। जैसे गुजराती, बंगला, मैथिल, उडिया, तामिल, तेलुगु, मलयालम आदि। ये लिपियाँ भी हैं और भाषा भी हैं। जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी आदि सिर्फ भाषा हैं, लिपि नहीं। अक्सर हम देखते हैं कि आज भी कई लोग हिंदी या संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाबद्ध ग्रंथ जो नागरी लिपि में लिखे हुए होते हैं; को भी हिंदी लिपि में लिखा हआ कहते हैं; जबकि हिंदी नाम की कोई लिपि ही नहीं है। सही में वह लिपि तो देवनागरी अथवा नागरी लिपि है। मनुष्य के विचारों को व्यक्त करने का माध्यम वाणी है। यह वाणी विभिन्न भाषाओं के माध्यम से संसार में प्रकट होती है। इन भाषाओं को लंबे समय तक स्थाई रूप से सुरक्षित रखने व एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का काम लिपि करती है। अतः भाषा के दो प्रमुख आधार माने गये हैं- (१) ध्वनि या नाद और (२) दृश्य। किसी भाषा का पहले ध्वनि रूप प्रकट होता है। बाद में वह दृश्य स्वरूप के रूप में अपने विकास का मार्ग प्रशस्त कर लेती है। अतः हम कह सकते हैं कि भाव तथा विचारों के प्रकाशन का ध्वनि-स्वरूप भाषा है और उसका दृश्य-स्वरूप लिपि। अर्थात् भाषा को दृष्टिगोचर करने के लिए जिन प्रतीक-चिह्नों का प्रयोग किया जाता है, उन्हें लिपि कहते हैं। भाषा और लिपि का संबन्ध सिक्के के दो पहलुओं के समान है। भाषा के बिना किसी लिपि की संभावना हो ही नहीं सकती। हाँ बिना लिपि के भाषा संभव है। अनेक बोलियाँ और उपभाषाएँ ऐसी हैं जो भावों और विचारों को व्यक्त करने का कार्य करती हैं, किन्तु लिपि के अभाव में उनका विशेष महत्त्व या प्रचार-पसार नहीं हो पाता। भाषा या बोली का ध्वनि स्वरूप स्थान-काल की सीमा में रहकर ही प्रकट किया जाता है, जबकि लिपि भाषा को स्थान और काल के बंधन से मुक्त कर देती है। इसका तात्पर्य यह है कि बोली गई भाषा किसी स्थान विशेष में उपस्थित व्यक्तियों तक ही सीमित रहती है, किन्तु लिखी गई भाषा दीर्घकाल पर्यन्त विस्तृत असीम भूमि पर कहीं भी उन विचारों और भावों को पहुँचा सकती है। इसी लिए लिपि को भाषा का एक अनिवार्य एवं अत्युत्तम अंग माना गया है। भाषा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने तथा दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रखने का काम लिपि ही करती है। For Private and Personal Use Only

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