Book Title: Shripalras aur Hindi Vivechan
Author(s): Nyayavijay
Publisher: Rajendra Jain Bhuvan Palitana

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Page 10
________________ मनुष्य अपना ही दोस्त है, अपना ही दुश्मन ।। हिन्दी अनुवाद सहित KAHAN*** * ***ॐने ५ स्थिर मन में एक दिव्य गुप्त शक्ति है, उस शक्ति के समक्ष संसार की विपुल संपत्ति आपके चरणों की दासी बन कर रहेगी। एक दिन आप जिन लोगों के घर घर भटक कर उनकी कृपा व उनसे कुछ गिनती की मुद्राए प्राप्त करने को गिढ़ गिड़ाया करते थे वे ही स्त्री पुरुष आप की विकसित दिव्य शक्ति से प्रभावित हो हाथ जोड़े आपके चारों ओर चक्कर काटते दिखाई देगे । दिव्यशक्ति जागृत कब होगी ? जबकि तुम निंदा, ईर्षा, छिद्रान्वेषणा, चन्चलता और मोह से बच कर । प्रेम समभाव एवं सन्तोष से अपने मन को सुशिक्षित करोगे । भय मनुष्य का भयंकर शत्रु है, इस की जड़ को मन से निर्मुल कर दो, पतन की ओर ले जाने वाली चिंताओं को हृदय से सदा के लिए अलग कर दो। ध्वंसकारी विचार ही तुम्हें निर्बल और मुर्दा बनाते हैं । इससे न तो जीवन को नवीन प्रकाश मिलता है न नसों में नए रक्त का संचार होता है। रक्त संचार के अभाव में मनुष्य दीन हीन बन, असमय में युवावस्था से हाथ धो, अपनी शकल सूरत को बुडेपन में बदल देते हैं। कर्मठ बनों, जो होना है सो होकर रहेगा । व्यर्थ की चिंताओं से घुल घुल कर मरना महान् पाप है। गड़े पत्थर, मरे मुर्दे मत उखाड़ो। आत्म चिंतन करो । अपने मन मन्दिर में आज से निष्काम प्रेम, समभाव, सन्तोष एवं सहृदयता की स्थापना कर कायर जीवन की रंगभूमि को ही बदल दो। निम्न गीत सदा मन ही मन गुन गुनाते रहो। तर्ज: ओ दूर जाने वाले आनंद शांति मय हम, मंगल स्वरुप पाएं । अविचल विमल सु-पद में, अविलम्ब जा समाएं ॥१॥ अरिहन्त सिद्ध शरण है, परमात्म भाव अपना । जग का ममत्व साग, समझा अनित्य सपना ॥२॥ हम हैं सदा अकेले, क्यों मुग्ध मन बनाएं । अविचल विमल सु-पद में, अविलंब जा समाएं ॥३॥ अपवित्र देह म अब, आसक्ति छोड़ देगें । मिथ्यात्व अवतों से निज वृत्ति मोड़ देगें ॥१॥

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