Book Title: Shrimad Bhagdwadgita ke Vishwarup Darshan ka Jain Darshanik Drushti se Mulyankan
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 5
________________ September-2006 दर्शन के अनुसार विश्व की निर्मिती, परिपालन तथा संहार करनेवाला और विश्व के विराट रूप को खुद में समेटनेवाला कोई भी ईश्वर, परमेश्वर या ईश्वरीय अवतार नहीं माना गया है । सर्वज्ञ अगर केवली इस प्रकार खुद के देह में ऐसा विराट दर्शन कभी नहीं करवाते । विश्व की समग्र वस्तुओं का पर्यायसहित ज्ञान उनको होता है। लेकिन उसमें असली विश्वस्वरूप यथातथ्य से दिखाई देता है कोई भी अद्भुतता या विचित्रता नहीं होती । वे जब विश्वस्वरूप का कथन करते हैं तब वह उपदेश शब्दरूप ही होता है । १° जैन दर्शन की दृष्टि से विश्वदर्शन की चाह से या दिखानेवाले की इच्छा से भी यह विराट विश्वदर्शन इस प्रकार से संभव नहीं है । 53 जैन दर्शन के अनुसार देवों का शरीर वैकियिक होता है । ९१ वे पृथ्वीपर भी आ सकते है । अपनी विकुर्वणा - शक्ति के द्वारा इस प्रकार के अद्भुत रूप दिखा सकते हैं । इस दृष्टि से कृष्ण को देवगति का एक जीव माना जा सकता है । लेकिन इसमें गीता की दृष्टि से और कृष्णचरित की दृष्टि से बड़ी आपत्ति आ सकती है । क्योंकि कृष्ण तो मानव हैं । फिर भी खुद को परमेश्वर या परमात्मा रूप में प्रस्तुत करते हैं । १२ जैन दर्शन के अनुसार मानव या देवगति का कोई भी जीव इस प्रकार का परमेश्वर नहीं होता । कृष्ण के कथनानुसार अगर यह विश्वरूप दिखाने की शक्ति उसकी यौगिक शक्ति या ऐश्वर्य माना जाय १३ तो तीर्थंकर, केवली में भी ऐसी अनंत शक्तियाँ होती हैं । १४ लेकिन किसी के अनुरोध से अपनी यौगिक शक्ति का इस प्रकार का प्रगटीकरण जैन शास्त्र को सम्मत नहीं है । (ब) कृष्ण जानता है कि अर्जुन के चर्मचक्षुओं में विश्वरूप देखने का सामर्थ्य नहीं है । इसलिए वह कहता है कि 'दिव्यं ददामि ते चक्षुः ' । जैन दर्शन के अनुसार ये दिव्यचक्षु ज्ञानचक्षु ही हो सकते हैं । ज्ञानचक्षु में सबकुछ देखने का सामर्थ्य भी है। लेकिन खुद के प्रयत्न के द्वारा प्राप्त किए हुए ज्ञानचक्षु से ही साधक देख सकता है । दिव्यचक्षु किसी दूसरे ने देने की या लेने की वस्तु नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार कृष्ण तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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