Book Title: Shrimad Bhagdwadgita ke Vishwarup Darshan ka Jain Darshanik Drushti se Mulyankan
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 4
________________ अनुसन्धान ३६ मानव हजारों सालों से रखता आया है। अनेक उपनिषदों में 'कोऽहं' प्रश्न के द्वारा इस जिज्ञासा का प्रकटीकरण किया है। केनोपनिषद् में 'केन' शब्द के द्वारा यही जिज्ञासा दिखलाई है । आचारांग के आरंभ में भी जीवों के अस्तित्व के बारे में पृच्छा की है। प्रश्न यह उठता है कि क्या ये जिज्ञासा रणांगण में, युद्धप्रसंग में की जा सकती है ? गीता में बताएँ हुए अनेक मुद्दों के बारे में यही प्रश्न ऊठता है । आत्मा का अमरत्व, देह की क्षणभंगुरता, अनासक्त होना, निष्काम होकर कर्म करना, स्वधर्मपालन की प्रेरणा आदि मुद्दे संक्षेप में कहे तो ठीक हैं लेकिन पूरा ध्यानयोग, भक्तियोग आदि का कथन बिलकुल ठीक या तर्कसंगत नहीं लगता । यह कोई प्रवचन का समय या तीर्थंकरों का समवसरण या धर्मसभा नहीं है कि ऐसे प्रश्न किये जायें और इतनी सुविस्तृतता से उत्तर भी दिये जायें । यह मुद्दा भी थोडी देर के लिए बाजू में रखेंगे । जैन दर्शन की दृष्टि से विश्व का विराट स्वरूप देखने की जिज्ञासा भी ठीक है लेकिन खुद की असमर्थता की जानकारी होते हुए भी ऐसी विनती करना और वह सर्वज्ञ ने मान्य करना ठीक नहीं है । हम कृष्ण की जगह सर्वज्ञ, तीर्थंकर या केवली को रखते तो जैन दर्शन की दृष्टि से उत्तर है कि विश्व का दर्शन करना एक ज्ञानविशेष है। मानव खुद को श्रद्धा, चारित्र तथा पुरुषार्थ द्वारा आध्यात्मिक प्रगति करे तो विश्वरूप उस में अपने आप प्रकट होता है । हरेक जीव स्वतंत्र है । सर्वज्ञ में विश्व को जानने का तथा देखने का सामर्थ्य है लेकिन वे अपने ज्ञान का संक्रमण नहीं कर सकते । अर्जुन ने खुद की असमर्थता तो इतने स्पष्ट शब्दों में प्रकट की है कि ऐसा व्यक्ति तो जैन दर्शन के अनुसार विश्वस्वरूप जान या देख नहीं सकता । (२) कृष्ण द्वारा रूपदर्शन कराना तथा दिव्य दृष्टि का प्रदान (अ) पहले तो कृष्ण अर्जुन से कहता है कि 'पश्य में पार्थ रूपाणि' इसका मतलब है कि कृष्ण खुद को परमेश्वर स्वरूप में प्रस्तुत करके कृष्ण के देह के अंतर्गत विराट विश्वस्वरूप दिखा रहा है । जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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