Book Title: Shrimad Bhagdwadgita ke Vishwarup Darshan ka Jain Darshanik Drushti se Mulyankan
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ September-2006 51 महेश, यक्ष, किनर, गंधर्व, आदित्य, इंद्र, रुद्र, मरुत्, सिद्धसंघ, राजाओं के समूह तथा कौरव, भीष्म, द्रोण, कर्ण और सब योद्धाओं को देखना। ५. उसी रूप में चंद्र-सूर्य, द्यावा-पृथिवी, अग्नि आदि पंचमहाभूत देखना। ६. उग्र, अद्भुत रूप, योद्धों द्वारा कराल दाढावाले मुख में प्रविष्ट होना, असहनीय उग्र तेज फैलना, किरीट, चक्रधारी, चतुर्भुज रूप उग्र में परिणत होना, त्रैलोक्य व्यथित होना तथा अर्जुन का भी भयभीत, खिन्ना एवं व्यथित होना । ७. कृष्ण का कालरूप में निवेदन, सभी योद्धाओं के मृत्यु की निश्चिति, अर्जुन का निमित्तमात्र होना, युद्ध के लिए प्रेरणा । ८. भयग्रस्त अर्जुन का उस अद्भुत पुरुष को बार-बार वंदन । ९. कृष्ण के शरीर में यह सारा देखकर अर्जुन का लज्जित होना । कृष्ण से पहले किये हुए बर्ताव के लिए अर्जुन द्वारा क्षमायाचना । पूर्वरूप में आने की विनती । १०. कृष्ण द्वारा कथन- 'मैंने प्रसन्न होकर, कृपा और योगविशेष से यह अद्भुत दर्शन करवाया है। कोई भी मानव या देव वेद, यज्ञ, अध्ययन, दान, क्रिया, तप आदि से भी यह दर्शन नहीं कर सकता ।। ११. कृष्ण का आखिरी उपदेश- यह दर्शन केवल अनन्य भक्ति से हो सकता है। उसी से परमात्मा का ज्ञान, दर्शन और उस में प्रवेश शक्य है। जो व्यक्ति परमेश्वर जैसा (समत्वबुद्धियुक्त) वर्तन करता है, तथा कर्म करता है, भक्त होता है, अनासक्त और प्राणिमात्रों के लिए बैररहित होता है, वह ईश्वर या परमात्मरूप होता है । ___ अब इसका एक एक पहलू लेकर जैन दृष्टि से परीक्षण का प्रयास करेंगे। (१) अर्जुन की जिज्ञासा तथा असमर्थता प्रकट करना विश्व का गूढ स्वरूप जानने की जिज्ञासा तो हरेक चिंतनशील Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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