Book Title: Shrimad Bhagdwadgita ke Vishwarup Darshan ka Jain Darshanik Drushti se Mulyankan Author(s): Nalini Joshi Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 1
________________ श्रीमद्भगवद्गीता के 'विश्वरूपदर्शन' का जैन दार्शनिक दृष्टि से मूल्यांकन डो. नलिनी जोशी (१) गीता के 'विश्वरूपदर्शन' की पार्श्वभूमि, स्थान तथा महत्त्व : महाभारत के भीष्मपर्वान्तर्गत गीता का वर्णन हम 'दार्शनिक काव्य' इन शब्दों में कर सकते हैं । कुरुक्षेत्र की रणभूमि में किये गये इस श्रीकृष्णोपदेश में कभी कभी दार्शनिक अंश उभर आते हैं तो कभी-कभी काव्य के अंश अपना प्रभाव दिखाते हैं । आज उपलब्ध पूरी सात सौ श्लोकों की गीता किसी ने युद्धभूमि पर कहना तार्किक दृष्टि से असंभव सी बात है । इसी वजह से कई शोधार्थियों ने 'मूल गीता' की खोज का तथा 'प्रक्षेप' ढूँढने का प्रयास भी किया है । गीता के कई भक्तों ने इस "विश्वरूपदर्शन' अध्याय की इतनी तारीफ की है कि जैन दार्शनिक दृष्टि से परीक्षण तथा मूल्यांकन करना हमें आवश्यक महसूस हुआ । इस शोधलेख में हमने यही प्रयास किया है । गीता के हरेक अध्याय की पार्श्वभूमि अलग अलग है । दूसरा अध्याय संजय के निवेदन से आरम्भ होता है, कुछ अध्यायों में कृष्ण सीधा कथन करने लगते हैं,३ तथा कुछ अध्याय में अर्जुन प्रश्न पूछता है और कृष्ण उत्तर स्वरूप अध्याय का कथन करते हैं । 'विश्वरूपदर्शन' गीता का ग्यारहवाँ अध्याय है । दसवे अध्याय में कृष्ण ने 'विभूतियोग' का कथन किया है । इस जगत् में जो जो विभूतिमत्, सत्त्व, श्रीमत् तथा ऊर्जित है, उन सब को कृष्ण ने परमेश्वर की विभूतियाँ मानी हैं । ये सब ईश्वर के अंशरूप हैं ।" इस दर्शन से प्रभावित हुए अर्जुन की जिज्ञासा जागृत हो उठती है । पुरुषोत्तम का समग्र ऐश्वर्यसम्पन्न रूप वह देखना चाहता है । उसको ज्ञात है कि इस प्रकार का ऐश्वर्यसम्पन्न रूप चक्षुद्वारा देखने का उसका सामर्थ्य नहीं है, इसीलिए वह बहुत नम्रता से अपनी इच्छा प्रकट करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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