Book Title: Shrimad Bhagdwadgita ke Vishwarup Darshan ka Jain Darshanik Drushti se Mulyankan Author(s): Nalini Joshi Publisher: ZZ_Anusandhan View full book textPage 8
________________ 56 अनुसन्धान ३६ देवता के रूप में प्रस्तुत किया है । युद्ध में मरने वाले योद्धे इस कालमुख में प्रविष्ट होते हुए देखनेवाले अर्जुन से कृष्ण कहता है कि 'मैं वही विराट पुरुष अब काल के रूप में परिणत हुआ हूँ।' हम प्रत्यक्ष-व्यवहार में भी अनुभव करते हैं कि प्रचंड चक्रवात, धूलिवात, सागरप्रकोप, भूकंप, ज्वालामुखी तथा महाभीषण युद्ध आदि प्रसंगों में मानव, पशु-पक्षी, वनस्पतियों का संहार देखकर हमें लगता है कि ये 'प्रत्यक्ष कालपुरुष, यम तथा मृत्युदेवता का तांडवनृत्य है।' लेकिन यह अनुभूति और तत्त्वतः 'काल' नाम 'द्रव्य' या 'पदार्थ'-इसमें कुछ मेलजोल है या मानवीय भावभावनाओं का 'काल' पर किया हुआ प्रत्यारोपण है ? - इस पर सूक्ष्मता से गौर करना चाहिए । सृष्टि की विविध घटनाओं का स्पष्टीकरण करने के लिए कालवाद, स्वभाववाद, परिणामवाद, कर्मवाद, नियतिवाद, समुच्चयवाद आदि अनेक दष्टिकोण विचारवंतों ने अपनाये हैं । गीता में ही अठारहवें अध्याय में अधिष्ठान, कर्ता, करण, कर्म (विविध चेष्टा) तथा दैव ये पाँच कारण माने गये हैं ।१९ महाभारत में अन्यत्र 'राजा कालस्य कारणम्' आदि वचन प्रसंगोपात्त आते हैं । तथापि उन वचनों को प्रासंगिक तथा अर्थवादात्मक मानना ही ठीक है। जैन दर्शन के अनुसार भी हरेक कार्य को उपादान तथा निमित्तकारण होते हैं । तथापि 'काल' कोई घटना में साक्षात् निमित्त नहीं होता । काल षड्-द्रव्यों में से एक है तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार 'काल परिवर्तनका आधार है ।'२० वस्तुओं के परिवर्तन देखकर हम काल का अस्तित्व जानते हैं । वास्तव में वह स्वयं अनादिअनंत और परिवर्तन से परे है । जैन दर्शनने 'मृत्यु' नामक देवता की परिकल्पना ही नहीं की है । यमदेवता, उसके सहकारी(दूत), उसके पाश, आदि की जैनदर्शन में कुछ संभावना नहीं है। हर एक का आयुष्कर्म होता है १२९ उस कर्म के क्षीण होते होते इस जीवनपर्याय (गतिपर्याय) की मर्यादा समाप्त होनेसे, किये हुए कर्म के अनुसार जीव दूसरी गति में गमन करता है । 'मृत्यु के द्वारा प्राणहरण' नहीं होता, हरेक प्राणी अपना आयुष्य-कर्म समाप्त होने पर कालवश होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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