Book Title: Shrimad Bhagdwadgita ke Vishwarup Darshan ka Jain Darshanik Drushti se Mulyankan
Author(s): Nalini Joshi
Publisher: ZZ_Anusandhan
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September-2006
११. ( अ ) कृष्ण का आखिरी कथन : अनन्य भक्ति द्वारा परमेश्वर का दर्शन
I
कृष्ण के कथनानुसार जब ईश्वरी कृपा और अनन्य भक्ति का इस प्रकार संगम हो जाता है तभी यह विश्वदर्शन या परमेश्वरदर्शन शक्य है । इसमें यह मुद्दा उपस्थित किया जा सकता है कि चलो, गीता की दृष्टि से सही यह अगर मान्य किया तो भी एक आपत्ति आती है । क्या अर्जुन श्रीकृष्ण का अनन्य भक्त है ? युद्ध के इस प्रसंग तक तो अर्जुन कृष्ण को भाई, सखा, मार्गदर्शक मान रहा था । उसी तरह से कृष्ण के साथ पेश आता था । यह इसी अध्याय में अर्जुनने कबूल किया है ।२९ अर्जुन एक क्षत्रियवंशीय गृहस्थ है । अभी तक तो उसने भक्तिमार्ग की आराधना नहीं की है । अनन्य भक्ति से ईश्वर का ज्ञान, दर्शन अगर ईश्वर में प्रवेश अग शक्य भी है तो अर्जुन 'अनन्य भक्त' कहलाने योग्य है क्या ? कृष्ण ने इस अद्भुत दर्शन की जो लीला दिखाई उसके बाद अर्जुन कृष्ण का अनन्य भक्त बन सकता है । उसने कृष्ण को बार बार किया हुआ वंदन इसी बात का द्योतक है । बात तो बिलकुल विपरीत हुई । अर्जुन को अनन्य भक्ति से यह दर्शन नहीं हुआ, इस दर्शन से वह अनन्य भक्त बना । केवल अर्जुन को ही यह विश्वदर्शन कराने में कृष्ण का पक्षपातित्व ही सिद्ध होता है, जो उसके परमेश्वर होने में बाधास्वरूप मालूम पड़ता है ।
(ब) परमात्मस्वरूप कौन हो जाता है ?
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गीता में कृष्ण ने कई बार 'अहं', 'मम', 'मां', 'मत्' इन शब्दों का प्रयोग किया है । कृष्ण = ईश्वर =परमेश्वर = परमात्मा ये समीकरण अगर मान्य किया जाय तो इस वाक्य रचना में जैन दर्शन के 'जीव' और 'परमात्मा' शब्दों के भावार्थ ध्यान में रखकर जो बात कही है, वह सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दर्शन से अचानक मेल खाती है ।
"जो भी जीव (ईश्वर जैसी) समत्वदृष्टि से कर्म करता है, आत्मध्यान में लीन है, आत्मा का भक्त है, सारी सांसारिक आसक्तियों से परे है, प्राणिमात्रों के प्रति द्वेषभावरहित है, वह खुद परमात्मस्वरूप हो जाता है ।" इस अध्याय के अंतिम श्लोक का भावार्थ हमें किसी भी जैन अध्यात्मग्रंथ
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