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अभिमत
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श्रीमद्भागवत महापुराण एक वैसा भक्ति-ग्रंथ है जिसकी प्रत्येक उक्ति रमणीय, मनोरम तथा हृद्य-लावण्य मण्डित है । भारतीय ऋषियों का परम उद्देश्य है- -सत्य का साक्षात्कार, पूर्णत्व की प्राप्ति, आत्म स्वरूप की afब्ध | लेकिन इस महायात्रा में भयंकर शत्रु है - अहंकार अर्थात् धन-दौलत, विद्या-सम्पन्नता, रूप-सौन्दर्य, सम्प्रदाय - श्रेष्ठता, कुल-वरीयता आदि का गर्व इसके रहते मुक्ति की ओर चरण-न्यास भी संभव नहीं, लक्ष्य तक पहुंचना तो दूर की बात है । इसलिए हमारे ऋषियों ने भक्ति का आश्रय लिया, अहंविलय का मार्ग खोजा ।
भक्ति का एक अर्थ खण्डयित्री शक्ति भी होता है । दूसरे शब्दों में, अहंकार ( भवरोग) विनाशिका शक्ति भक्ति है । भागवतकार ने इस सन्दर्भ में भक्ति के अनेक विशेषणों का प्रयोग किया है- आत्मरजस्तमोपहा, शोकमोहभयापहा, संसृतिदुःखोच्छेदिका, मृत्युपाशविशातिनी, देहाध्यासप्रणाशिका, अशेष संक्लेशशमदा आदि ।
भागवतकार का लक्ष्य है- - सत्य का साक्षात्कार, परमविशुद्धि की प्राप्ति । इस प्रसंग में अनेक संदर्भ उपलब्ध होते हैं । गर्भ स्तुति में भक्त कहते हैं - सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः । लेकिन जब तक अहंकार है उस सत्य को कौन प्राप्त कर सकता है ? अहंकार का विलय तो भक्ति के बिना हो ही नहीं सकता । दार्शनिक प्रस्थानों में वैमत्य एवं भेदमोह का मूल कारण अहंकार ही है । जब तक वह दूर नहीं होता तब तक भेदरेखा बनी रहेगी, दार्शनिक विवाद होते रहेंगे। बड़े-बड़े संत, ज्ञानी एवं विद्वान् भी अहंकारवश अपनी संकुचित दृष्टि को छोड़ नहीं सकते । इसीलिए कहा गया है
कामरागस्नेहरागावीषत्कर निवारणौ ।
दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेदः सतामपि ।।
अहंकार विवादास्पद दर्शनों की प्रसवभूमि है । अहंकार - प्रसूत दर्शन सत्य तक नहीं पहुंच सकते । भक्ति का साध्य है - अहंकार विलय । अहंकार विलय होते ही भेदमोह का विलय होता है और तब होता है परम का साक्षात्कार । भागवतकार ने इस सत्य के उद्घाटन में काफी बल दिया है । पितामह भीष्म भक्ति के कारण ही विगत भेद मोह हो गए - 'समधिगतो
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