Book Title: Shravak Dharm Vidhi Prakaran Author(s): Haribhadrasuri, Vinaysagar Mahopadhyay, Surendra Bothra Publisher: Prakrit Bharti Academy View full book textPage 4
________________ प्रकाशकीय जैनधर्म शासन-व्यवस्था का अर्धांग है श्रावक। मोक्षमार्ग की साधना का प्रथम सोपान श्रावकाचार से आरंभ होता है। महाव्रतों के कष्टसाध्य मार्ग पर बढने से पहले अणुव्रत रूप श्रावक-धर्म के परिपालन की परिपाटी आदिकाल से चली आ रही है। श्रावक धर्म की विशेषता यह है कि वह केवल मोक्षमार्ग की साधना नहीं है प्रत्युत सांसारिक जीवन को भी व्यवस्थित और सन्मार्गगामी बनाने का साधन है। इसी श्रावकाचार को संक्षिप्त किन्तु व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है याकिनीमहत्तरासूनु आचार्य हरिभद्रसूरि ने। रचना के अंतिम पद में "भवविरहांक" शब्द का उल्लेख इस बात की पुष्टि करता है कि इसके रचनाकार कोई अन्य हरिभद्रसूरि नहीं, अपितु जैन मनीषी आचार्यों की प्रथम श्रेणी /आप्त कोटि में स्थापित आचार्य हरिभद्रसूरि ही थे। - इस पुस्तक का प्रथम संस्करण श्री मानदेवसूरि रचित टीका के साथ श्री जैन आत्मानन्द सभा भवन, भावनगर से १९२४ ईस्वी में प्रकाशित हुआ था जिसका संकलन-संशोधन प्रवर्तक श्री कांतिविजयजी म० के शिष्यरत्न श्री चतुरविजयजी म० ने किया था। यह संस्करण वर्तमान में अनुपलब्ध है। श्रावक समुदाय के लिए इसकी उपयोगिता देखते हुए तथा प्राकृत साहित्य के अध्येताओं तथा शोधार्थियों के लिए इस विषय की प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध कराने के उद्देश्य से प्राकृत भारती एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठने इस संस्करण के संयुक्त प्रकाशन की योजना बनाई। जैन साहित्य एवं प्राकृत के प्रमुख विद्वान् महोपाध्याय विनयसागरजी ने इसका हिन्दी अनुवाद एवं संपादन किया। जैन वाङ्मय के प्रतिष्ठित विद्वान् एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ केPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 134