Book Title: Shraman Gyan Mimansa Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf View full book textPage 8
________________ श्रमण ज्ञान मीमांसा १-३. भवंग से भवंग विच्छेद तक-वीथि के पूर्व कृत्य हैं अतः वे चित्त नहीं । ४. पंचद्वारावज्जन = दर्शन ५. चक्षुर्विज्ञान = व्यंजनावग्रह अवग्रह ६. सम्पटिच्छन्न = अर्थावग्रह ७. सन्तीरण ईहा ८. वट्ठपन अवाय ९. जवन १०. तदारंभण धारणा जैनदर्शन प्रारम्भ से ही चक्षु और मन को अप्राप्यकारी मानता आ रहा है और शेष इन्द्रियों को प्राप्यकारी । परन्तु बौद्ध दर्शन इस विषय में एक मत नहीं। स्थविरवादी अभिधर्म दर्शन सभी इंद्रियों को प्राप्यकारी मानता-सा दिखाई देता है पर उत्तरवादी दर्शनों में इसके संबंध में मतभेद हो गया। सौत्रान्तिक और वैभाषिक जैनदर्शन के समान चक्षु को अप्राप्यकारी मानते हैं, विज्ञानवादी उसे चक्षुर्विज्ञान का कार्य स्वीकार करते हैं और शून्यवादी चक्षु, श्रोत्र और मन, सभी को अप्राप्यकारी बताकर उनका प्रतिषेध कर देते हैं। विज्ञानवादी के अनुसार देखने का कार्य चक्षु नहीं, चक्षुर्विज्ञान करता है पर वैभाषिक उसे अप्राप्यकारी ही मानते हैं। सौत्रांतिक निर्व्यापार' की बात करते हैं।' शून्यवादी आर्यदेव चार महाभूतों और चार उपादान भूतों से उत्पन्न होने वाला घट-चक्षु द्वारा संपूर्णतः दिखाई नहीं देता। इतना ही नहीं, उन्होंने तो चक्षुरादिक इन्द्रियों की सत्ता को ही अस्वीकार कर दिया, विज्ञान की असंभवनीयता बताते हुए और आगे चक्षु को अप्राप्यकारी सिद्ध करने में लगभग वही सब तर्क प्रस्तुत किये जो जैन दर्शन करता है। समचा बौद्ध दर्शन श्रोत्र को भी अप्राप्यकारी कहता है और उसके पीछे उसका तर्क यह है कि वह दूरवर्ती शब्द को सुन लेता है, परन्तु जैन-दर्शन एक मत से श्रोत्र को प्राप्यकारी कहता है। उसके अनुसार श्रोत्र दूर से शब्द नहीं सुनता, बल्कि वह तो नाक की तरह अपने देश में आये हुए शब्द पुद्गलों को सुनता है। शब्द वगंणायें कान के भीतर ही पहुँचकर सुनाई देती हैं। यदि कान दूरवर्ती शब्द को सुनता तो उसे कान में प्रविष्ट मच्छर का भिनभिनाना नहीं सुनाई देना चाहिए क्योंकि कोई भी इन्द्रिय अतिनिकटवर्ती या दूरवर्ती दोनों प्रकार के पदार्थ को नहीं जान सकती।३ जैनदर्शन मन को भी अप्राप्यकारी मानता है। पर बौद्धदर्शन उसे स्वीकार नहीं करता। जैनदर्शन में मन को अनिन्द्रिय और अन्तःकरण भी कहा गया है। वह सूक्ष्म और इन्द्रियों के समान नियत देश में अवस्थित नहीं । वह तो आत्मप्रदेश के रूप में सर्वत्र शरीर में अवस्थित रहता है। हृदयस्थान में आठ पांखुड़ी के कमल के आकार वाला है। यह द्रव्य मन है। संकल्पविकल्पात्मक रूप ज्ञान भाव मन है। १. अभिधर्मकोष, गाथा ४२-४३ २. चतुःशतकम्, ३१३-३१४ ३. तत्त्वार्थराजवार्तिक, १.१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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