Book Title: Shraman Gyan Mimansa
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 13
________________ ९८ प्रो० भागचन्द्र जैन किया।' दिङ्नाग, आर्यदेव, धर्मकीर्ति आदि सभी बौद्धाचार्यों ने परमाणुवाद के विरोध में समान तर्क प्रस्तुत किये हैं। दृश्य स्थूल अवयवी का निषेध करके उसकी सत्ता-प्रतीति में अविद्या-वासना को मूल कारण माना। परमाणुवादी सौत्रान्तिक वैभाषिकों ने स्थूल पदार्थ को परमाणुपुञ्ज मात्र माना। इस संदर्भ में बौद्धों में तीन मत उपलब्ध हैं। १. प्राचीन बौद्धों के अनुसार परमाणुओं का परस्पर संयोग होता है और शेष दोनों इस प्रकार के संयोग को स्वीकार नहीं करते ।' जैनधर्म परमाणु के विषय में भेदाभेदवादी है। अन्तर यह है कि बौद्धधर्म परमाणुपुञ्ज से अतिरिक्त स्कन्ध की स्वतंत्र सत्ता को नहीं मानते जबकि जैनों के मत में पुद्गल द्रव्य अणु-स्कन्ध रूप है । अवयव-अवयवी में कथंचित् तादात्म्य है। सौत्रांतिक बौद्धधर्म में वस्तु को क्षणिक मानकर क्षणभंगुरवाद की स्थापना की गई है। जैनधर्म भी क्षणभंगुरवाद को स्वीकार करता है पर वस्तु का वह निरन्वय विनाश नहीं मानता। अन्यथा अर्थक्रिया का अभाव हो जायगा और अर्थक्रिया का अभाव हो जाने पर वस्तु-सत् की सिद्धि ही नहीं होगी । क्षणभंगुरता की यह चरम स्थिति स्थविरवाद में नहीं मिलती। आचार्य अनिरुद्ध ने रूप की आयु ५१ क्षण की बताई है। सर्वास्तिवाद में तो नाम और रूप, दोनों को पारमार्थिक माना है और यह स्पष्ट किया है कि सभी वस्तुओं का त्रैकालिक अस्तित्व है। जैनधर्म की दृष्टि से यह मत सही है क्योंकि यह मूल तत्त्व को नित्य मानता है। सर्वास्तिवाद का परमाणु समुदायवाद जैनदर्शन के द्रव्य-पर्यायवाद से समानता रखता है। बौद्धधर्म में जिसे पारमार्थिक भूततथतावाद कहा है, जैनधर्म में वह 'सत्' माना जा सकता है। जैनों का निश्चयक नय की दृष्टि से आत्मा है वह । भूततथता के सांवृतिकस्वरूप पर दृष्टिपात करते हुए वस्तु के व्यावहारिक स्वरूप पर समानता की दृष्टि से ध्यान केन्द्रित हो जाता है। अन्तर यह है कि भूततथता जैसा एक मात्र परम तत्त्व निश्चय व्यवहार नय रूप आत्मा जैनधर्म में नहीं। जीव (आत्मा) के अतिरिक्त अजीव तत्त्व भी जैनधर्म में वर्णित है। प्रमाण के भेद बौद्धधर्म प्रमाण के दो ही भेद मानता है-प्रत्यक्ष और अनुमान । जैनधर्म में मूल संख्या तो वही रही, नाम में अन्तर पड़ा । यहाँ प्रमाण के दो भेद माने गये-प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के लक्षण में समय-समय पर विकास होता रहा । परोक्ष के अन्तर्गत स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम को रखा गया। इन सब के विषय में मैंने "जैनदर्शन और संस्कृति का इतिहास" तथा "बौद्ध संस्कृति का इतिहास" नामक पुस्तकों में लिखा है । अतः उनको यहाँ दुहराना आवश्यक नहीं। १. माध्यमिक कारिका, ४, १, ५. ६; १०. १५ । २. तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ. ५५६ ।। ३. क्षणभंगवाद का खण्डन हर जैन दार्शनिक ने किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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