Book Title: Shraman Gyan Mimansa
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 15
________________ प्रौ० भागचन्द्र जैन वस्तु के कथन करने का नाम स्याद्वाद है । ये दोनों वाद वस्तु के अनन्तधर्मात्मक स्वरूप का प्रतिपादन मुख्य-गौण भाव से करते हैं। ये दोनों शब्द समानार्थक हैं, फिर भी भेद यह है कि अनेकान्तवाद ज्ञानरूप है और स्याद्वाद वचनरूप । दोनों एक दूसरे के परिपूरक हैं। विभज्जवाद का तात्पर्य है -वस्तु तत्त्व को विभक्त करके प्रस्तुत करना। भगवान् बुद्ध ने विवादग्रस्त प्रश्नों का समाधान इसी के माध्यम से किया था। शुभ माणवक ने बुद्ध से प्रश्न कियाक्या गृहस्थ ही न्यायकुशल धर्म (निर्वाण) का आराधक होता है, प्रवजित संन्यासी नहीं ? बुद्ध ने कहा-मैं यहाँ विभज्जवादी हूँ, एकंशवादी नहीं। गृही के लिए भी और प्रवजित के लिए भी मैं मिथ्या-प्रतिपत्ति (झठा विश्वास) की प्रशंसा नहीं करता । चाहे गृही हो या प्रवजित, मिथ्या प्रतिपत्ति के कारण यह न्याय-कुशल धर्म का आराधक नहीं होगा। गृही के लिए भी और प्रवजित के लिए भी मैं सम्यक् प्रतिपत्ति की प्रशंसा करता हूँ।' यहाँ यह द्रष्टव्य है कि बुद्ध ने एकंशवाद को मिथ्या-प्रतिपत्ति और विभज्जवाद को सम्यक्प्रतिपत्ति के रूप में स्वीकार किया है । इससे स्पष्ट है कि बुद्ध विभज्जवाद का प्रयोग पदार्थ के सम्यक स्वरूप के विवेचन के लिए किया करते थे। उनके अन्य कथनों से पता चलता है कि उन्होंने तत्कालीन प्रचलित दार्शनिक सिद्धान्तों को उत्तर देने के लिए चार प्रकार की विधियाँ प्रयुक्त की थी १. एकंस व्याकरणीय २. पटिपुच्छा व्याकरणीय ३. ठापनीय, और ४. विभज्जव्याकरणीय इन चार प्रकारों में मूल प्रकार दो रहे होंगे-एकंस व्याकरणोय, और अनेकंस व्याकरणीय । अनेकंस व्याकरणीय के ही बाद में दो भेद हुए होंगे-विभज्जव्याकरणीय और ठापनीय । पटिपुच्छा व्याकरणीय विभज्जव्याकरणीय का ही भेद रहा होगा। उक्त चार विधियों के अतिरिक्त बुद्ध ने विवादग्रस्त प्रश्नों को अव्याकृत कह दिया । दीघनिकाय में उन्हीं अव्याकृत प्रश्नों को दो भागों में विभाजित किया गया है-एकंसव्याकरणीय और अनेकंस व्याकरणीय । यथा-एकंसकापि खो, पोट्ठवाद मया धम्मा देसिता पत्ता , अनेकसिकापि हि खो, पोट्टपाद, मया धम्मा देसिता। अव्याकृत प्रश्नों को बुद्ध ने अनेकसिक माना और कहा कि वे प्रश्न न सार्थक हैं, न धर्म उपयोगी हैं, न निर्वेद के लिए हैं और न वैराग्य के लिए हैं-न हेते पोट्ठपाद, अत्थसंहिता, न धम्मसंहिता, न आदिब्रह्मचरिका, न निब्बिदाय, न विरागाय, न निरोधाय, न उपसमाय, न अभिज्ञाय, न संबोधाय, न निब्बानाय संवत्तन्ति ।' यहाँ बुद्ध ने जिन विवादग्रस्त प्रश्नों को 'अनेकसिक' कहा है वे प्रश्न ऐसे हैं जिनका उत्तर एकान्तिक दृष्टि से दिया ही नहीं जा सकता। इस दृष्टि से यह सिद्धान्त अनेकान्तवाद के अधिक समीप है। १. मज्झिमनिकाय, सुभसुत्तन्त २. दीघनिकाय, पोट्टपाद, भाग १, पृ. १५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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