Book Title: Shraman Gyan Mimansa
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 1
________________ श्रमण ज्ञान-मीमांसा - प्रोफेसर भागचन्द्र जैन 'भास्कर' श्रमण संस्कृति में सम्यक् ज्ञान का उतना ही महत्त्व है जितना सम्यक् चारित्र का । ये सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन पर प्रतिष्ठित रहते हैं इसलिए निर्वाण को साधना इन तीनों महास्तम्भों पर अवलम्बित है । महावीर और बुद्ध दोनों महापुरुषों ने रत्नत्रय और आष्टाङ्गिक मार्ग को इसी उद्देश्य से प्रस्तुत किया था ताकि जीवन में साध्य और साधन अधिकाधिक विशुद्ध रह सकें । इसलिए उन्होंने परीक्षावादी होने के लिए आग्रह किया है । आत्मा अथवा चित्त का गुण 'विजानन' माना गया है, जहाँ विजानन होता है वहाँ दर्शन भी होता है । अत: ज्ञान और दर्शन आत्मा का गुण है । पर पदार्थों का ज्ञान होने पर साकार होने के कारण उसे ज्ञान कहते हैं और जब वह मात्र चैतन्य रूप रहता है तब उसे दर्शन कहते है । यह दर्शन निराकार और चैतन्याकार रहता है । एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के उपयोग में प्रवृत्त होने के बीच की निराकार अवस्था दर्शन है। बौद्धदर्शन में इसे निर्विकल्पक कहा गया है। जैन दर्शन इसे प्रमाण कोटि से बाहर मानता है । दर्शनोपयोग निराकार और निर्विकल्प होता है जबकि ज्ञानोपयोग साकार और सविकल्पक होता है। दर्शन में सत्ता को मात्र प्रतीति होती है और उसका निर्णय ज्ञान करता है । " ज्ञान अथवा प्रमाण ज्ञान प्रमा का साक्षात् साधकतम होता है । जैन-बौद्ध दर्शन में इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि को प्रमाण नहीं माना गया क्योंकि वे स्वयं अचेतन हैं। प्रमाण लक्षण की तार्किक परंपरा का प्रारंभ कणाद से होकर अक्षपाद, वात्स्यायन, वाचस्पतिमिश्र और उदयनाचार्य तक पहुँचा । न्याय-वैशेषिक परंपरा में कारण-शुद्धि पर विचार करते हुए विषय बोधक अर्थ पद का सन्निवेश किया गया पर स्वप्रकाशकत्व और अपूर्वता का सन्निवेश नहीं हो सका । मीमांसक परंपरा ने अदुष्टकारणारब्ध, निर्बाधत्व तथा अपूर्वार्थत्व विशेषणों से एक ओर न्याय-वैशेषिक परंपरा में कथित कारण दोष को दूर कर दिया वहीं दूसरी ओर बौद्ध परंपरा को भी अंगीकार कर लिया। अभी तक न्याय-वैशेषिक और मीमांसक परंपरा में स्वप्रकाशकत्व को कोई स्थान नहीं था । बौद्ध नैयायिकों ने इस कमी की पूर्ति की । दिङ्नाग ने प्रमाण के लक्षण में " स्वसंवित्ति" शब्द देकर इसका सूत्रपात किया । विज्ञानवाद की स्थापना का यह फल था । धर्मकीर्ति ने 'अविसंवादित्व' विशेषण से वात्स्यायन और कुमारिल की बात कह दी तथा शांतरक्षित ने दिङ्नाग और धर्मकीर्ति को एकत्रित करके परिभाषा बना दी । जैन परंपरा में समन्तभद्र और सिद्धसेन ने स्वपरावभासक पद से प्रमाण के लक्षण की कमी की पूर्ति कर दी, यद्यपि बोद्ध नैयायिकों ने इसका पहले ही आभास करा दिया था । अकलंक ने धर्म १. सन्मतिप्रकरण २- १; न्यायविनिश्चय, १ - ३; सर्वार्थसिद्धि, २-९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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