Book Title: Shraman Gyan Mimansa
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 7
________________ ९२ प्रो० भागचन्द्र जैन ९. जवन- शीघ्रता के साथ गमन को जवन कहते हैं। इस अवस्था में मन का ज्ञात आलम्बन के साथ ग्रहण-त्याग के रूप में सीधा परिभोगात्मक संबंध हो जाता है। १०. तदारमण- इस अवस्था में मन आलम्बन के विषय में अपनी अनुभूतियाँ अंकित करता है। इसके बाद भवंगपात हो जाता है अर्थात् तद्विषयगत वीथि का अवरोध हो जाता है। इन दश अवस्थाओं के व्यतीत होने के बाद ही इन्द्रिय और मन आलम्बन को जान पाते हैं। मनोद्वारवीथि में दो प्रकार के आलम्बन होते हैं-विभूत (स्पष्ट) और अविभूत (अस्पष्ट) चित्त की शक्ति की अपेक्षा से आलम्बन के इन दो भेदों का अभिधान हुआ है । चित्त यदि निर्मल होता है, समाधि की प्रबलता से तो आलम्बन उसमें विभूत रूप से प्रतिबिम्बित हो उठता है और यदि चित्त समाधि को दुर्बलता से निर्मल नहीं हुआ तो आलम्बन उसमें अस्पष्ट बना रहता है। ___ आलम्बन और विषय प्रवृत्ति समानार्थक हैं। इन्द्रियाँ और रूप के साथ ही आलोक और मनसिद्वार, इन चार प्रकार के प्रत्ययों के होने पर ही चक्षुर्विज्ञान की उत्पत्ति होती है। इसी संदर्भ में प्रत्येक चित्त की उत्पाद, स्थिति और भंग ये तीन अवस्थायें बनायी गई हैं। इन तीनों अवस्थाओं के सम्मिलित रूप को क्षुद्र-क्षण या एकचित्त क्षण कहते हैं। इस एकचित्त क्षण में उत्पाद-स्थिति भंग इतनी शीघ्रता से प्रवृत्त होते हैं कि एक अच्छरा ( चुटकी बजाने या पलक झपने जितना काल ) में ये लाखों-करोड़ों बार उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार के १७ चित्तक्षणों का काल रूपधर्म की आयु है । अर्थात् नामधर्म और रूपधर्म समान रूप से अनित्य और संस्कृत होने पर भी नामधर्मों की आयु अल्प और रूपधर्मों की आयु दीर्घ होती है। इस अन्तर का कारण यह है कि नामरूप धर्मों में महाभूत प्रधान होते हैं जो स्वभावतः गुरु हैं। सम्बद्ध द्वार में होने वाले घट्टन को ही 'अभिनिपात' कहा जाता है। रूपालम्बन का चक्षुप्रसाद से संघटन होने पर 'मनोद्वार' नामक भवंगचित ( हृदय ) में उस आलम्बन का प्रादुर्भाव हो जाता है। चित्त का प्रादुर्भाव भी वस्तु, आलम्बन एवं मनसिकार आदि संबद्ध कारणों के संनिपात होने पर स्वतः हो जाता है । बौद्धधर्म में चित्त के साथ ही 'मनोविज्ञान धातु' का भी आख्यान हुआ है जिसे अन्य चित्तों की अपेक्षा विशेष रूप से जानने वाली धातु माना गया है। इस प्रकार चक्षुगत विषय विजानन प्रक्रिया में चक्षुर्वस्तु, हृदयवस्तु, चक्षुर्दार, रूपालम्बन, चक्षुर्विज्ञान तथा चक्षुर्धार के साथ अतिमहद् आदि चतुर्विध विषय-प्रवृत्ति काम करती है। श्रोत्रद्वारवीथि आदि में भी इसी प्रकार का क्रम होता है। तुलना उपर्युक्त दश अवस्थाओं में भवंग से भवंगविच्छेद तक की क्रियायें वीथि के पूर्वकृत्य हैं । अतः उन्हें चित्त नहीं कहा गया। चित्त की क्रिया पंचद्वारावज्जन से प्रारम्भ होती है और संपटिच्छन्न अवस्था तक मात्र यही जाना जाता है कि 'उपस्थित विषय कुछ है'। जैनदर्शन में इसी को अवग्रह कहा जाता है। इसी प्रकार चक्षुर्विज्ञान व्यंजनावग्रह का नामान्तर है जिसमें दर्शन निर्विकल्पात्मक रहता है और संपटिच्छन्न को अर्थावग्रह कहा जा सकता है जिसमें वस्तु विशेष का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। इसी रूप में सन्तीरण को ईहा का, वोटपन को अवाय का और जवन तथा तदारम्भण को धारणा का नामान्तर माना जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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