Book Title: Shraman Gyan Mimansa
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 10
________________ श्रमण ज्ञान मीमांसा ही 'अभिज्ञा' है । इस अवस्था में पारमिताओं की प्राप्ति कर ली जाती है। इससे निम्न प्रकार के ज्ञान उत्पन्न होते हैं १. इद्विविध-अनेक प्रकार की ऋद्धियों से सम्पन्न ज्ञान । बौद्ध साहित्य में विशेषतः १० प्रकार की ऋद्धियों का उल्लेख मिलता है । १. अधिष्ठान ऋद्धि (एक होकर भी अनेक होना) २. विकुर्वाण ऋद्धि-(नाना रूपों को धारण करना) ३. मनोमय ऋद्धि-(काय के भीतर उसी तरह का दूसरा रूप धारण करना) आदि ४: दिव्य धोत्र-(देव भूमि में होने वाले श्रोत्र को सुनना) ५. परचित्त विज्ञान-दूसरे के चित्तों को जानना) ६. पुब्बेनिवासानुस्मृति (पूर्व भवों का ज्ञान होना ) ७. दिव्य चक्षु-(च्युति-उत्पाद-ज्ञान) ८. आश्रवक्षयज्ञान -- अर्हत् मार्गज्ञान, इनमें विकुर्वाण ऋद्धि और मनोमय ऋद्धि क्रमशः वैक्रियक और आहारक शरीर जैसे हैं। परचित्तविज्ञान मनःपर्याय ज्ञान से पुब्बेनिवासानुस्मृति से जातिस्मरण और दिव्यचक्षु से अवधिज्ञान की समानता देखी जा सकती है। केवलज्ञान और सर्वज्ञता आश्रवक्षयज्ञान केवलज्ञान से मिलता-जुलता ज्ञान है । कर्माश्रवों के क्षय हो जाने पर पूर्णज्ञान की प्राप्ति होती है । यह अभिज्ञा लोकोत्तर मानी गई है। प्रथम पाँच अभिज्ञायें लौकिक मानी जाती हैं । साधक परम विशुद्धि को प्राप्त करने के बाद ही इस अवस्था तक पहुँचता है। दिव्यचक्षु प्राप्त हो जाने पर यह अवस्था मिलती है। ___ सर्वज्ञता और केवलज्ञान में कोई अन्तर नहीं। पर यहाँ बुद्ध की सर्वज्ञता और अन्य की सर्वज्ञता के बीच अन्तर दिखाई देता है। बुद्धेतर साधकों के ज्ञान का आलम्बन एकदेश रहता है जबकि बुद्ध का ज्ञान सर्वविध आलम्बन लिये रहता है । इस ज्ञान को “सब्ब ताण" कहा गया है (यह ज्ञान बुद्ध के सिवा और किसी में नहीं रहता)।' बौद्धधर्म में बुद्ध ने प्रारम्भ में स्वयं को सर्वज्ञ कहना-कहलाना उचित नहीं समझा. पर वे अपने आपको 'विद्य' कहा करते थे (इसी का विकास उत्तर काल में धर्मज्ञ और तदनन्तर सर्वज्ञ को मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित हुआ) बौद्ध धर्म सर्वज्ञता के इस विकासात्मक इतिहास को मैं अन्यत्र प्रस्तुत कर चुका हूँ। बौद्धदर्शन का मन्तव्य है कि भगवान् बुद्ध का ज्ञान सर्वार्थविषयक नहीं अपितु हेयोपादेय तत्त्व विषयक है। संसारी के सर्वार्थविषयक ज्ञान न तो संभव है और न ही उसकी आवश्यकता है। अन्यथा उसके सर्वज्ञ होने का प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। निर्भयसार्थी को सर्वज्ञ होने का प्रयोजन १. अभिधम्मत्थसंगह, ३.५८ २. Jainism is Buddhist Literature, P. 278-288. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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