Book Title: Shraman Gyan Mimansa
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf
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श्रमण ज्ञान मीमांसा
१०३
साहित्य के ही एक अन्य उद्धरण से यह पता चलता है कि भगवान् महावीर तीन भंगों का भी उपयोग किया करते थे । उनके शिष्य दीघनख परिब्बाजक का निम्न कथन भगवान् बुद्ध की आलोचना का विषय बना था -
१. सब्बं मे खमति
२. सब्बं मे न खमति
३. एकच्चं मे खमति एकच्चं मे न खमति
वेदों और त्रिपिटक ग्रन्थों में चतुष्कोटियों का उल्लेख आता है पर प्राचीन बौद्ध साहित्य में भगवान् महावीर के सिद्धान्तों के साथ उक्त तीन ही भंग दिखाई देते हैं । इसलिए ऐसा लगता है कि भगवान् महावीर ने मूलतः इन्हीं तीन भंगों को स्वीकार किया होगा । अतः अवक्तव्य का स्थान तीसरा न होकर चौथा ही रहना चाहिए ।
जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद पर विशेष चिन्तन किया । उनके चिन्तन का यही सम्बल था । इसलिए जब तृतीय अथवा चतुर्थ भंग के साथ एकान्तिक दृष्टि के साथ भी आक्षेप किया गया तो उन्होंने उससे बचने के लिए सप्त भंगों का सृजन किया। इस सप्तभंगी साधना में हर प्रकार का विरोध और एकान्तिक दृष्टि समाधिस्थ हो जाती है । भगवतीसूत्र, सूत्रकृतांग, पंचास्तिकाय आदि प्राचीन ग्रन्थों में यही विकसित रूप दिखाई देता है । उत्तरकालीन बौद्ध साहित्य में भी इसके संकेत मिलते हैं । थेरगाथा में कहा गया है - " एकङ्गदस्सी दुम्मेधो सतदस्सी च पण्डितो" ।" यहाँ सतदस्सी के स्थान पर, लगता है, 'सत्तदस्सी' पाठ होना चाहिए था । इसे यदि सही मानें तो सप्तभंगी का रूप स्पष्ट हो जाता है ।
जैन दर्शन ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय, निश्चय और व्यवहारनय, शुद्ध और अशुद्धनय, पारमार्थिक और व्यावहारिक नय आदि रूप से भी पदार्थ का चिन्तन किया है परन्तु इनका विशेष उल्लेख प्राचीन बौद्ध साहित्य अथवा अन्य जैनेतर साहित्य में नहीं मिलता । संभव है, इसे उत्तरकाल में नियोजित किया गया हो ।
इस विवेचन से हम अनेकान्तवाद के विकास को निम्नलिखित सोपानों में विभक्त कर
सकते हैं
१.
२.
३.
एकंसवाद - अनेकंसवाद
सत्-असत् उभयवाद चतुर्थ भंग-अवक्तव्य
४. सप्तभंग, और
५. द्विनय अथवा सप्तनय
भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध का समान उद्देश्य था - पदार्थ स्वरूप का सम्यक् विवेचन करना | बुद्ध के समान महावीर ने भी विभज्जवादी भाषा के प्रयोग को अपेक्षित माना । शायद यह समानता इसलिए भी हो कि दोनों महान् व्यक्तित्व मूलतः एक ही परम्परा के अनुयायी थे । इसलिए दोनों ही प्राथमिक स्तर पर विभज्जवादी हैं । उत्तरकाल में बुद्ध का विभज्जवाद जिस पक्ष की ओर
१. थेरगाथा, १०६ ।
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