Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha

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Page 7
________________ [3] उपसंहार (गा० ४०)। टिप्पणियाँ पृष्ठ ५७-५६ १०-ढाल १० (दुहा ४ : गाथा इ) नवमीं बाड़ ६०-६२ ब्रह्मचारी के लिये विभूषा-शृङ्गार का वर्जन ; विभूषा से बाड़ का खण्डन (दोहा १-२); ब्रह्मचारी के विभूषित होने का कोई कारण नहीं (दो० ३); ब्रह्मचर्य-रक्षा के लिए इस बाड़ का पालन भी आवश्यक (दो० ४); ब्रह्मचारी के लिये देह-विभूषा-पीठी, उबटन, तैल आदि के उपयोग का निषेध (गाथा १); उष्ण या शीतल जल से स्नान, केशर चन्दन आदि का विलेपन, दाँतों का रंगना तथा दंत-धावन का वर्जन (गा० २); बहु मूल्य उज्ज्वल वस्त्र, तिलक, टीका, कंकण, कुण्डल, अंगूठी, हार, एवं केश आदि के संवारने का निषेध (गा० ३-५); अंग-विभूषा कुशीलता का द्योतक, इससे गाढ़ कर्मों का बंध, स्त्री द्वारा विचलित किये जाने का भय (गा० ६-७); शृङ्गार करनेवाले ब्रह्मचारी के शीलरूपी रत्न के लुट जाने का भय (गा० ८); उपसंहार-जन्म-मरणरूपी भव-जल से संतरण के लिये विभूषा-त्याग द्वारा शील को सुरक्षित रखने की आवश्यकता (गा०६)। टिप्पणियाँ ६२-६३ ११-ढाल ११ (दुहा ५ : गाथा १३) कोट । कोट की महत्ता : बाड़ों तथा शील-व्रत की रक्षा के लिये कोट अनिवार्य (दोहा १-३); शहर की रक्षा के लिये मजबूत कोट के समान व्रतों की रक्षा के लिये स्थिर कोट आवश्यक (दो० ४); कोट-निर्माण एवं उसकी रक्षण-विधि बतलाने की प्रतिज्ञा (दो० ५); शब्द के प्रिय तथा अप्रिय दो भेद; ब्रह्मचारी को दोनों में राग-द्वेष रहित होने का आदेश (गाथा १); काला, पीला, नीला, लाल और सफेद-इन पाँच अच्छे बुरे वर्गों में ब्रह्मचारी को समभावी होने का आदेश (गा० २); दो प्रकार के गंध-सुगंध और दुगंध; उनमें ब्रह्मचारी को राग-द्वष रहित होने का उपदेश (गा० ३); पाँच प्रकार के रस और ब्रह्मचारी को उनमें राग-द्वेष न रखने का आदेश (गा० ४); आठ प्रकार के स्पर्शों से ब्रह्मचारी निरपेक्ष रहे (गा० ५); शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्शादि में राग-द्वेष रहित होना ही दसवाँ कोट (गा० ६); शीलरूपी बहुमूल्य रत्न की रक्षा के लिये कोट की आवश्यकता (गा० ७); ब्रह्मचारी के मनोज्ञ शब्दादि से प्रसन्न होने पर कोट का नाश, कोट के नाश से बाड़ों का नाश । परिणामतः ब्रह्मचर्य का नाश (गा० ८); कोट की रक्षा अनिवार्य; उससे शील की रक्षा; उससे अविचल मोक्ष की प्राप्ति (गा०६); शीलरूपी कोट के खण्डन न करने से उत्तरोत्तर आनन्द की प्राप्ति (गा० १०); कोट सहित नव बाड़ों के वर्णन का हेतु-संसार से मुक्ति (गा० ११); रचना का आधार : 'उत्तराध्ययन सूत्र' का सोलहवां अध्ययन (गा० १२); रचना-काल तथा स्थान-फाल्गुन बदी दशमी, गुरुवार, पादुगाँव (गा० १३)। टिप्पणियाँ ६७-७० परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त ७३-११७ परिशिष्ट-ख : आगमिक आधार १२१-१२६ परिशिष्ट-ग:श्री जिनहर्ष रचित शील की नव बाड़ १२७-१३४ परिशिश्ट-घ: सहायक पुस्तक सूची १३४-१३५ Scanned by CamScanner

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