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शील को नव वाड
को यदाचर्य कहते हैं
" "मोक्ष का हेतु सम्यक् ज्ञान
" एवं इन्द्रिय-निरोध रूप ब्रह्म की चर्या-अनुष्ठान हो उस मोनीन्द्र-प्रवचन-जिन-प्रवचन को ब्रह्मचर्य कहते है दर्शन-चरित्रात्मक मार्ग ब्रह्मचर्य है ।" निर्यक्तिकार भद्रबाह ने प्राचाराङ्ग का वर्णन करते हुए लिखा है : "बारह अङ्गों में प्राचाराङ्ग प्रथम अङ्ग है। जा
अडों में प्राचाराङ्ग प्रथम अङ्ग है। उसमें मोक्ष के उपाय का वर्णन है। वह प्रवचन का साररूप है।” वे आगे जाकर लिखते हैं : "वेद-पाचाराङ्ग ब्रह्मचर्य नामक नौ अध्ययन मग इसका तात्पर्य यह हुआ कि आचाराङ्ग के ब्रह्मचर्य नामक नौ अध्ययन प्रवचन के साररूप हैं और उनमें मोक्ष के उपाय का वर्णन तरह ब्रह्मचः शब्द मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक सारे प्रशस्त गुण और आचरण का द्योतक शब्द माना गया है। उसमें सारे मल और उत्तर गुणों की साधना का समावेश होता है। उसमें सारा मोक्ष-मार्ग समा जाता है। .........
नियुक्तिकार अन्यत्र कहते हैं : "भाव ब्रह्म दो प्रकार का होता है—एक मुनि का वस्ति-संयम (उपस्थ-संयम) और दूसरा मनि का सम्पूर्ण संयम' । .... ..
...... उपर्युक्त विवेचन से ब्रह्मचर्य के दो अर्थ सामने आते हैं : ... जिसमें मोक्ष के लिए ब्रह्म-सर्व प्रकार के संयम की चर्या अनुष्ठान हो, वह ब्रह्मचर्य है । इसमें सर्व मूल उत्तर गुणों की चर्या का समावेश होता है।
माया २-वस्ति-संघम अर्थात् वस्ति-निरोध ब्रह्मचर्य है। इस अर्थ में सर्व दिव्य और औदारिक काम और रति-सुखों से मन-वचन-काय
१ सत्रकता २.५:१ और उसकी टीका :। आदाय बम्मचरं च आसुपन्ने इमं वइं।
कारण या काम किया । अस्सिं धम्मे अणायारं नायरेज कयाइपि ॥
ब्रह्मचर्य सत्यतपोभूतदयन्द्रियनिरोध लक्षणं तञ्चर्यते अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मौनीन्द्र प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते । तर २-वहीं: मौनीन्द्र प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते।......मौनीन्द्रप्रवचनं तु मोक्षमार्गहेतुतया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकम्
। ३–आचाराङ्ग नियुक्ति गा०६ :
आयारो अंगाणं पढम अंग दवालसणहंपि। इत्य य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स
... ४-आचाराङ्ग नियुक्ति गा० ११: ) TIS
. णवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ।
हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ ५-आचाराङ्ग नियुक्ति गा• ३० :
भावे गइमाहारो गुणो गुणवओ पसत्थमपसत्था। - गुणचरणे पसत्थेण बंभचेरा नव हवंति ॥ ६-वही गा० ३० की टीका :
नवाप्यध्ययनानि मुलोत्तरगुणस्थापकानि निर्जरार्थमनुशील्यन्ते ७ वही गा० २८ :
दव्वं सरीरभविओ अन्नाणी वत्थिसंजमो चेव । भावे उ वत्थिसंजम णायन्वो संजमो चेव ॥ भावब्रह्म तु साधूनां वस्तिसंयमः , अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम एव , सप्तदशविधसंयमाभिन्नरूपत्वादस्येति अष्टादशभेदास्त्वना
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