Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 4 Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla Publisher: Divya Darshan Trust View full book textPage 3
________________ चौथी और पांचवी कारिका में क्षणिकत्व के वो बाधक स्मरणानुपपत्ति और प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति का निदर्शन है। अपि हि नमी ' इस प्रत्यभिज्ञा को बौद्ध प्रमाण नहीं मानते. किंतु व्याख्याकार ने उसके प्रामाण्य की विस्तार से उपपत्ति कर दी है। इष्ट विषय की प्राप्ति, उसके लिये प्रवृत्ति और प्राप्त होने पर इच्छा का विच्छेद तथा अपने से किये गये कर्म के उपभोग-इत्यादि की अनूपपत्ति को भी यहाँ क्षणिकवाद में बाधकरूप से दर्शाया है। बौद्ध संतानवाद का आश्रय लेकर ओं को हटाना चाहता है-किन्त अन्धकार ने १०वीं कारिका में यह कह कर उसका प्रतिक्षेप किया है कि संतान कोई पूर्वापरक्षणों के कार्य-कारणभाष (परम्परा) से अन्य वस्तु नहीं है और बौद्ध असत्कार्यवादी होने से उसके क्षणिकबाद से कार्यकारणभाव की व्यवस्था दुष्कर है। कार्यकारणभाव की समीक्षा में ६५ वीं कारिका तक बौद्ध के संतानवाद पूर्व बीज से उत्तर बीज की उत्पत्ति ] की आलोचना के बाद ( का०६६ से ८६ तक ) बौद्ध के सामग्रीपक्ष ( यानी रूपादि से विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति ) की विस्तार से आलोचना की गयो है। असत्कार्यवाद में दो मुख्य बाधायें का० ११ में बतायी है-(१) अभाव कभी भी भावरूपता का अंगीकार नहीं करता, और (२) भाव कभी अभावरूपता को नहीं स्वीकारता। का० १२ से ३८ तक द्वितीय बाधा का विस्तार से समर्थन किया गया है और का०३६ से ६५ तक प्रथम बाधा का समर्थन किया है । द्वितीयबाधा के समर्थन में धर्मकीत्ति के मत का भी निराकरण प्रस्तुत किया गया है। भाव के अभाव हो जाने को आपत्ति के प्रतिकार में का० ३२-३३ में धर्म कीति यह दलोल करते हैं कि 'भाव अभाव हो जाता है-इसका यह तात्पर्य नहीं है कि वहाँ अभाव जैसा कुछ होता है, किन्तु यह मतलब है कि वहाँ कुछ भी नहीं होगा। शशसोंग अभाव होता है-इसका भी यही मतलब है कि वह भावरूप नहीं होता ।' धर्मकोत्ति के कथन विरुद्ध व्याख्याकार किसी तटस्थ को उपस्थित करते हैंउस तटस्थ का कहना है कि योग्यानुपलब्धि से शशसींग के अभाव का ग्रह शक्य होने से शशसींगाभाव में कालसम्बन्धस्वरूप भवन का विधान विरुद्ध नहीं है। इस कथन के समर्थन में तटस्थ की ओर से न्यायकुसुमाञ्जलि दूसरे स्तबक की तीसरी कारिका में प्रोक्त उदयनमत का भी खण्डन कर दिया है । एवं श्रीहर्षकृत खण्डन खण्डखाद्य प्रथम कारिका से अपने मत का समर्थन भी किया है । किन्तु धर्मकोत्ति ने इस तटस्थ कथन का खण्डन कर दिया है। ३५ और ३६ वी कारिका से प्रन्थकार ने धर्मकीत्ति के उक्त मत का खण्डन कैसे हो जाता है उसकी स्पष्टता में यह दोष बताया है कि नष्ट भाव के उन्मज्जन को आपत्ति यहाँ भी दुनिवार है। इसकी व्याख्या में व्याख्याकार ने 'भूतले घटो 'वाक्य के न्यायिकाभिप्रेत शाब्दबोष का विस्तार से निरूपण ओर खण्डन कर के मूलकार के इस कथन की उपपत्ति की है कि 'घटो नास्ति' इस वाक्य से घटास्तित्व का जैसे अभाव बोध होता है वैसे घटाभाव के अस्तित्व का भी बोध होता है । का० ३८ में व्याख्याकार ने नैयायिक के इस मत का कि-'अभाव सर्वथा भाव से भिन्न ही होता है' विस्तार से निरूपण और खण्डन किया है। एवं प्रभाकर के इस मत का कि-घटवाले भूतल की वृद्धि से भिन्न भूतल की बुद्धि ही घटाभाव है-विस्तार से निरूपण और खण्डन किया है। का० ३४ से ६५ तक 'अभाव कभी भी भावरूपता को अंगीकार नहीं करता' इस प्रथम बाधक के समयन में, बीच में शान्तरक्षित नाम के बौद्ध पंडित के मत की आलोचना प्रस्तुत कर दीPage Navigation
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