Book Title: Seva Paropkar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 11
________________ सेवा - परोपकार ११ ओब्लाइजिंग नेचर प्रश्नकर्ता : अब मेरी दृष्टि से कहता हूँ कि अब एक कुत्ता हो, वह किसी कबूतर को मारे और हम बचाने जाएँ तो मेरी दृष्टि से हमने ओब्लाइज किया, तो वह तो हम व्यवस्थित के मार्ग में आए न? दादाश्री : वह ओब्लाइज होगा ही कब? जब उसका 'व्यवस्थित' हो तभी होगा हमसे, नहीं तो होगा ही नहीं। हमें ओब्लाइजिंग नेचर रखना है। उससे सारे पुण्य ही बंधेंगे, इसलिए दुःख उत्पन्न होने का साधन ही नहीं रहा। पैसों से नहीं हो सके तो, फेरा लगाकर या बुद्धि के द्वारा, समझाकर भी, चाहे किसी भी रास्ते ओब्लाइज करना । परोपकार, परिणाम में लाभ ही और यह लाइफ यदि परोपकार के लिए जाएगी तो आपको कोई भी कमी नहीं रहेगी। किसी तरह की आपको अड़चन नहीं आएगी। आपकी जो-जो इच्छाएँ हैं, वे सभी पूरी होगी और ऐसे उछल-कूद करोगे, तो एक भी इच्छा पूरी नहीं होगी। क्योंकि वह रीति, आपको नींद ही नहीं आने देगी। इन सेठों को तो नींद ही नहीं आती है, तीन-तीन, चार-चार दिन तक सो ही नहीं पाते, क्योंकि लूटपाट ही की है जिसकीतिसकी । इसलिए, ओब्लाइजिंग नेचर किया कि राह चलते-चलते, यहाँ पड़ोस में किसी को पूछते जाएँ कि भैया, मैं पोस्ट ऑफिस जा रहा हूँ। आपको कोई ख़त पोस्ट करना है? ऐसे पूछते-पूछते जाने में क्या हर्ज है मगर ? कोई कहे कि मुझे तुझ पर विश्वास नहीं आता । तब कहें, भैया, पैर पड़ता हूँ। मगर दूसरे को विश्वास आए, तो उनका तो ले जाएँ। यह तो मेरा बचपन का गुण था, वह मैं कहता हूँ। ओब्लाइजिंग सेवा - परोपकार १२ नेचर और पच्चीस साल का हुआ तो मेरा सारा फ्रेन्ड सर्कल मुझे सुपर ह्युमन कहता था। ह्युमन कौन कहलाए कि जो ले-दे, समान भाव से व्यवहार करे। सुख दिया हो, उसे सुख दे । दुःख दिया हो, उसे दुःख न दे। ऐसा सब व्यवहार करे, वह मनुष्यपन कहलाता है। इसीलिए जो सामनेवाले का सुख ले लेता है, वह पाशवता में जाता है। जो खुद सुखे देता है और सुख लेता है, ऐसा मानवीय व्यवहार करता है, वह मनुष्य में रहता है और जो खुद का सुख दूसरों को भोगने के लिए दे देता है, वह देवगति में जाता है, सुपर ह्युमन खुद का सुख दूसरों को दे दे, किसी दुखी को, वह देवगति में जाता है। उसमें इगोइजम नोर्मल प्रश्नकर्ता: परोपकार के साथ 'इगोइज़म' की संगति होती है? दादाश्री : हमेशा परोपकार जो करता है, उसका 'इगोइज़म' नोर्मल ही होता है। उसका 'इगोइज़म' वास्तविक होता है और जो कोर्ट में डेढ़ सौ रुपये फ़ीस लेकर दूसरों का काम करते हों, उनका 'इगोइज़म' बहुत बढ़ा हुआ होता है। इस संसार का कुदरती नियम क्या है कि आप अपने फल दूसरों को देंगे तो कुदरत आपका चला लेगी। यही गुह्य साइन्स है । यह परोक्ष धर्म है। बाद में प्रत्यक्ष धर्म आता है, आत्मधर्म अंत में आता है। मनुष्य जीवन का हिसाब इतना ही है । अर्क इतना ही है कि मन-वचन-काया दूसरों के लिए वापरो । नया ध्येय आज का, रीएक्शन पिछले प्रश्नकर्ता : तो परोपकार के लिए ही जीना चाहिए?

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