Book Title: Seva Paropkar
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 19
________________ सेवा - परोपकार रहना और इगो खतम हो गया। तो फिर यहीं मोक्ष हो जाए। 'मैं कौन हूँ' जानना, वह धर्म प्रश्नकर्ता: हरएक जीव को क्या करना चाहिए? उसका धर्म क्या है ? दादाश्री : जो कर रहा है, वह उसका ही धर्म है। पर हम कहते हैं कि मेरा धर्म, इतना ही। जिसका हम इगोइज़म करते हैं कि यह मैंने किया। इसलिए हमें अब क्या करना चाहिए कि 'मैं कौन हूँ' इतना जानना, उसके लिए प्रयत्न करना, तो सारे पज़ल सॉल्व हो जाएँ। फिर पज़ल खड़ा नहीं होगा और पजल खड़ा नहीं हो, तो स्वतंत्र होने लगें। लक्ष्मी, वह तो बाय प्रोडक्शन में प्रश्नकर्ता : कर्तव्य तो हरएक मनुष्य का, फिर वह वकील हो या डॉक्टर हो, पर कर्तव्य तो यही होता है न कि मनुष्य मात्र का भला करना ? दादाश्री : हाँ, पर यह तो 'भला करना है' ऐसा निश्चय किए बगैर ही बस किया करते है, कोई डिसीजन लिया नहीं । कोई भी हेतु निश्चित किए बिना ऐसे ही ऐसे गाड़ी चलती रहती है। किस गाँव जाना है, इसका ठिकाना नहीं है और कौन से गाँव उतरना है, उसका भी ठिकाना नहीं है । रास्ते में चाय-नाश्ता कहाँ लेना है, उसका भी ठिकाना नहीं। बस, दौड़ते रहते हैं। इसलिए सब उलझा है। हेतु निश्चित करने के बाद सारे कार्य करने चाहिए। हमें तो खाली हेतु ही बदलना है, दूसरा कुछ करना नहीं है। पंप के इंजन का एक पट्टा यहाँ दें तो पानी निकले और इस और पट्टा दिया तो धान में से चावल निकलें। अर्थात् खाली पट्टा देने में ही फर्क है। हेतु निश्चित करना है और फिर वह हेतु लक्ष में रहना चाहिए। बस, दूसरा २८ कुछ भी नहीं। लक्ष्मी लक्ष में रहनी नहीं चाहिए। 'खुद की' सेवा में समाए सर्व धर्म सेवा - परोपकार दो प्रकार के धर्म, तीसरे प्रकार का कोई धर्म होता नहीं है। जिस धर्म में जगत् की सेवा है, वह एक प्रकार का धर्म और जहाँ खुद की (स्व की आत्मा की) सेवा है, वह दूसरे प्रकार का धर्म। खुद की सेवावाले होम डिपार्टमेन्ट में (आत्मस्वरूप में) जाए और इस संसार की सेवा करे, उसे उसका संसारी लाभ मिलता है, या भौतिक मज़े करते हैं। और जिसमें जगत् की किसी भी प्रकार की सेवा समाती नहीं, जहाँ खुद की सेवा का समावेश नहीं होता है, वे सारे एक तरह के सामाजिक भाषण हैं! और खुद अपने को भयंकर नशा चढ़ानेवाले हैं। जगत् की कोई भी सेवा होती हो, तो वहाँ धर्म है। जगत् की सेवा न हो, तो खुद की सेवा करो। जो खुद की सेवा करता है, वह जगत् की सेवा करने से भी बढ़कर है। क्योंकि खुद की सेवा करनेवाला किसी को भी दुःख नहीं देता ! प्रश्नकर्ता: पर खुद की सेवा करने का सूझना चाहिए न ? दादाश्री : वह सूझना आसान नहीं है। प्रश्नकर्ता: वह कैसे करें? दादाश्री : वह तो खुद की सेवा करते हों, ऐसे ज्ञानी पुरुष से पूछना कि साहिब, आप औरों की सेवा करते हैं या खुद की? तब साहिब कहें कि, 'हम खुद की करते हैं।' तब हम उनसे कहें, 'मुझे ऐसा रास्ता दिखाइए !' 'खुद की सेवा' के लक्षण प्रश्नकर्ता: खुद की सेवा के लक्षण कौन से हैं? दादाश्री : 'खुद की सेवा' अर्थात् किसी को दुःख न दे, वह

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