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सेवा परोपकार
कैसा लगता है आपको? इसलिए शुरूआत घर से होनी चाहिए न ? प्रश्नकर्ता : ये भाई कहते हैं कि उनके केस में घर में धुआँ नहीं
है ।
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दादाश्री : इसका अर्थ यह हुआ कि वह सच्ची सेवा है। करो जनसेवा, शुद्ध नीयत से
प्रश्नकर्ता: लोकसेवा करते-करते उसमें भगवान के दर्शन करके सेवा की हो तो वह यथार्थ फल देगी न?
दादाश्री : भगवान के दर्शन किए हों, तो लोकसेवा में फिर पड़ता नहीं, क्योंकि भगवान के दर्शन होने के बाद कौन छोड़े भगवान को ? यह तो लोकसेवा इसके लिए करनी है कि भगवान मिलें, इसलिए। लोकसेवा तो हृदय से होनी चाहिए। हृदयपूर्वक हो, तो सब जगह पहुँचे। लोकसेवा और प्रख्याति दोनों मिले, तो मुश्किल में डाल दे मनुष्य को । ख्याति बिना की लोकसेवा हो, तब सच्ची । ख्याति तो होनेवाली ही है, पर ख्याति से इच्छा रहित हो, ऐसा होना चाहिए ।
जनसेवा तो लोग करें ऐसे हैं नहीं। यह तो भीतर छुपा हुआ कीर्ति का लोभ है, मान का लोभ है, सब तरह-तरह के लोभ पड़े हैं, वे करवाते हैं। जनसेवा करनेवाले लोग तो कैसे होते है? वे अपरिग्रही पुरुष होते हैं। यह तो सब नाम बढ़ाने के लिए। धीरे-धीरे 'किसी दिन मंत्री बनूँगा' ऐसा करके जनसेवा करता है। भीतर नीयत चोर है, इसलिए बाहर की मुश्किलें, बिना काम के परिग्रह, वह सभी बंद कर दो तो सब ठीक हो जाएगा। यह तो एक ओर परिग्रही, संपूर्ण परिग्रही रहना है और दूसरी ओर जनसेवा चाहिए। ये दोनों कैसे संभव है?
प्रश्नकर्ता: अभी तो मैं मानवसेवा करता हूँ, घर-घर सबसे भीख माँगकर गरीबों को देता हूँ। इतना मैं करता हूँ अभी ।
सेवा - परोपकार
दादाश्री : वह तो सारा आपके खाते में बहीखाते में जमा होगा। आप जो देते हो न... ना, ना आप जो बीच में करते हो, उसकी रकम निकालेंगे। ग्यारह गुना रकम करके, फिर उसकी जो दलाली है, वह आपको मिलेगी। अगले भव में दलाली मिलेगी और उसकी शांति रहेगी आपको यह काम अच्छा करते हो इसलिए अभी शांति रहती है और भविष्य में भी रहेगी। वह काम अच्छा है।
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बाकी सेवा तो उसका नाम कि तू काम करता हो, तो मुझे पता भी नहीं चले। उसे सेवा कहते हैं। मूक सेवा होती है। पता चले, उसे सेवा नहीं कहते।
सूरत के एक गाँव में हम गए थे। एक आदमी कहने लगा, 'मुझे समाजसेवा करनी है।' मैंने कहा, 'क्या समाजसेवा तू करेगा?' तब कहता है, ‘सेठ लोगों के पास से लाकर लोगों में बाँटता हूँ।' मैंने कहा, 'बाँटने के बाद पता लगाता है कि वे कैसे खर्च करते हैं?' तब कहे, 'वह हमें देखने की क्या ज़रूरत?' फिर उसे समझाया कि भैया! मैं तुझे रास्ता दिखाता हूँ, उस तरह कर सेठलोगों से पैसा लाता है तो उसमें से उन्हें सौ रुपये का ठेला दिलवा देना। वह हाथ-लारी आती है न, दो पहियेवाली होती है, वह सौ डेढ़ सौ या दो सौ रुपये की लारी दिलवा देना और पचास रुपये दूसरे देना और कहना, 'तू साग-सब्ज़ी लाकर, उसे बेचकर, मुझे मूल रकम रोज़ शाम को वापस दे देना। मुनाफा तेरा और लारी के रोज़ाना इतने पैसे भरते रहना।' इस पर कहने लगा, 'बहुत अच्छा लगा, बहुत अच्छा लगा। आपके फिर सूरत आने से पहले तो पचास- सौ लोगों को इकट्ठा कर दूँगा।' फिर ऐसा कुछ करो न, अभी लारियाँ आदि ला दो इन सभी गरीबों को। उन्हें कुछ बड़ा व्यापार करने की ज़रूरत है? एक लारी दिलवा दो, तो शाम तक बीस रुपये कमा लेंगे। आपको कैसा लगता है ? उन्हें ऐसा दिलाएँ तो हम पक्के जैन हैं कि नहीं? ऐसा है न, अगरबत्ती भी जलते - जलते सुगन्धी देकर जलती है, नहीं? सारा रूम सुगंधीवाला कर