Book Title: Sanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 01 Author(s): Yudhishthir Mimansak Publisher: Yudhishthir Mimansak View full book textPage 8
________________ अन्तिम रूप से संशोधित परिष्कृत और परिवर्धित का उस समय मुझे परिज्ञान नहीं हुआ था ) तथा उस के पश्चात् पाणिनीय व्याकरण और इतर व्याकरण विषय के अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए । व्याकरण - सम्बन्धी शोध प्रबन्ध छपे हुए और ४ शोध-प्रबन्ध प्रमुद्रित भी देखने को उपलब्ध हुए । इन सब के अध्ययन से अनेक नये तथ्य प्रकाश में आये तथा कतिपय अपनी भूलों का भी परिज्ञान हुआ । इस लिये उन सब का इस संस्करण में यथास्थान समावेश करना और ज्ञात हुई भूलों का परिमार्जन करना आवश्यक था । इस कार्य को मैंने यथाशक्ति करने का प्रयास किया है । पुनरपि मैं अनुभव करता हूं कि इसे जितना अधिक सुन्दर बनाया जा सकता था उतना शारीरिक अस्वस्थता के कारण मैं नहीं बना सका । वर्तमान शारीरिक स्थिति को देखते हुए मैं इस संस्करण को अपने जीवन का अन्तिम संस्करण समझता हूं । इसीलिये शीर्षक में 'अन्तिम रूप से ' शब्द का प्रयोग किया है । आगे दैवेच्छा बलीयसी, उसे कौन जान सकता है। इस संस्करण में जिन ग्रन्थों से विशेष सामग्री संकलित की गई है। उनके नाम इस प्रकार हैं --- १. पाणिनि : ए सर्वे आफ रिसर्च (पाणिनि: अनुसन्धान का सर्वेक्षण) - लेखक जार्ज कार्डीना । प्रकाशन काल १९७६ । श्री जार्ज कार्डोना ने मेरे ग्रन्थ के सन् १९७३ के तृतीय संस्करण का उपयोग किया है । - १४ जुलाई सन् १९८१ में पूना विश्वविद्यालय पूना में आयोजित 'इण्टरनेशनल सेमिनार प्रोन पाणिनि' के अवसर पर आप से भेंट हुई थी । आप बड़े विनीत और सहृदय व्यक्ति हैं । जार्ज कार्डोना ने मेरे संस्कृत व्या० शा ० का इतिहास तथा मेरे द्वारा सम्पादित वा प्रकाशित व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थों के विषय में जो कुछ लिखा है, उसे पाठकों के ज्ञान के लिये संक्षेप से प्रस्तुत संस्करण के तृतीय भाग में दे रहा हूं । 1 1 २. भर्तृहरि विरचित महाभाष्य- दीपिका - इसके दो संस्करण छपे हैं । प्रथम - श्री वी० स्वामीनाथन् एम० ए० एम० लिट० ( तिरुपति' ने सम्पादित किया है और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सन् १९६५ में छपा है । यह संस्करण चतुर्थ प्राह्निक पर्यन्त ही है । द्वितीयश्री पं० काशीनाथ वासुदेव श्रभ्यङ्कर ने सम्पादित किया है। इसेPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 770