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प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्व उत्तरपक्ष:
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अस्तु वा तत्र यथोक्तं ज्ञानद्वयम् तथापि तयोर्ज्ञानयोरन्यतरेण स्वग्रहणविधुरेण न स्वाधारस्य, न सहचरस्य ज्ञानस्य, नाप्यन्यस्य गोचरस्य ग्रहणम् । तथाहि पद स्वग्रहणविधुरं तन्नान्यग्रहणम् , यथा घटादि, स्वग्रहणविधुरं च प्रकृतं ज्ञानम् , ततोऽनेन सहचरस्याऽग्रहणाव कथं तेनाऽस्य ग्रहणम् ? तेनापि ग्रहरणविरहितेनाऽस्य वेदने तदेव वक्तव्यम् इति न कस्यचिद् ग्रहणम् इति न तत्समवेतत्वेन तदबुद्धगुणत्वम् , नापि तदाधारस्य द्रव्यत्वं सिद्धिमुपगच्छति । तस्मानित्यबुद्धिपूर्वकत्वेऽङकुरादीनां किमिति युगपदुत्पादो न भवेव ईश्वरवत तबुद्धेरपि सदा संनिहितत्वात् ? अनित्यबुद्धिसव्यपेक्षस्यापीश्वरस्याचेतनाधिष्ठायकत्वेन जगद्विधातृत्वे तस्य नित्यत्वेन तदबुद्धरपि सदा संनिहितत्वम् , अविकलकारणयोः सर्वदा संनिहितत्वाद्युगपदंकुरादिकार्योत्पत्तिप्रसंगः । तस्मात 'बुद्धिमत्त्वात्' इति विशेषणमकिचित्करमेव इति नाऽनैकान्तिकता हेतोः।
ज्ञान को स्वविदितत्व नहीं माना जाना। और अन्य कोई नित्य ज्ञान ईश्वर में संभव नहीं है जिससे कि वह प्रथम ज्ञान का ग्रहण करें। यदि वैसा होता तब तो-एक ज्ञान से ईश्वर सकल पदार्थसमूह को जानता और दूसरे से पहले ज्ञान को जान लेता-ऐसा हो सकता था, कि तु ऐसी कल्पना का सम्भव नहीं, क्योंकि यावद्रव्य भावि दो सजातीय गुण एक साथ कहीं भी उपलब्ध नहीं है । यदि अन्यत्र अनुपलब्ध होने पर भी वैसी कल्पना की जाय तो फिर अंकुरादि कार्य अकर्तृक होने की कल्पना भी हो सकेगी।
[स्त्र के अग्राही ज्ञान से पर का ग्रहण अशक्य ] कदाचित् दो ज्ञान का एककाल में सहास्तित्व मान लिया जाय तो भी उनमें से एक भी अपने आधार का, अपने सहचारि ज्ञान का अथवा अन्य किसी विषय का ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने ग्रहण से विकल है । देखिये, यह नियम है कि-जो स्वग्रहणशून्य होता है वह दूसरे किसी का ग्रहण नहीं करता, उदा० घटादि, प्रस्तुत ईश्वरीयज्ञान भी स्वग्रहणशून्य ही है । अत: उससे अपने सहचारि का ग्रहण शक्य नहीं है, तो फिर दूसरे ज्ञान से प्रथम ज्ञान का ग्रहण कैसे होगा? प्रथम ज्ञान के लिये भो, स्वग्रहणशून्य होने से दूसरे ज्ञान को, वह ग्रहण नहीं कर सकता इत्यादि वही बात लागु होगी। फलतः किसी का भी ग्रहण हो जब सिद्ध नहीं होगा तो 'ज्ञान ईश्वर में समवेत है' ऐसा भी ग्रहण नहीं हो सकेगा । तात्पर्य, तत्समवेतत्व के आधार पर बुद्धि में गुणरूपता की, और उसके आधार में द्रव्यत्व की, सिद्धि नहीं की जा सकती। अब फिर से वह प्रश्न आयेगा ही की, जब ईश्वर की तरह उसकी बुद्धि भी सदा उपस्थित है और अंकुरादि नित्यबुद्धि पूर्वक ही उत्पन्न होते हैं तो अंकुरादि सारे जगत की एक साथ उत्पत्ति होने का दोष क्यों नहीं होगा ? यदि ईश्वर की बुद्धि को अनित्य मान कर, ईश्वर में अनित्यबुद्धिसापेक्ष अचेतनाधिष्ठायकता मानी जाय और ऐसे ईश्वर को जगत् का कर्ता कहा जाय तो भी उपरोक्त आपत्ति-अंकुरादि को एक साथ उत्पत्ति की आपत्ति तदवस्थ ही है, क्योंकि-अनित्य. बुद्धि का उत्तादक ईश्वररूप कारण नित्य होने से वह बुद्धि भी नयी नयी उत्पन्न हो कर सदा संनिहित ही रहेगी । अत: उद्योतकर ने जो यह कहा था कि 'ईश्वर बुद्धिवाला ( अर्थात् बुद्धि पूर्वक कर्ता ) होने से सकलभावों को एकसाथ उत्पत्ति की आपत्ति नहीं होगी'-यहाँ 'बद्धि वाला होने से'
थन उपरोक्त रीति से अकिचित्कर सिद्ध हुआ। इस लिये हमने जो कहा था कि जो अविकलकारणवाला होता है वह उत्पन्न होता ही है-यहाँ हेतु में कोई अनैकान्तिकता दोष नहीं रहता।
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