Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 652
________________ प्रथमखण्ड-का० १-नित्यसुखसिद्धिवादे पूर्व० ६१५ अन्ये त "आत्मैकत्वज्ञानात परमात्मनि लयः सम्पद्यते" इति नवते । तथाहि-आत्मैव परमार्थसन् , ततोऽन्येषां भेदे प्रमाणाभावात् , प्रत्यक्षं हि पदार्थानां सद्भावग्राहकमेव न भेदस्य इत्यविद्यासमारोपित एवायं भेदः-इति मन्यन्ते । तदप्यसत्-आत्मैकत्वज्ञानस्य मिथ्यारूपतया निःश्रेयससाधकस्वानुपपत्तेः, मिथ्यात्वं चात्माधिकार एव वक्ष्यामः। एवं शब्दाद्वैतज्ञानमपि मिथ्यारूपतया न निःश्रेय. ससाधनमिति द्रष्टव्यम् । यथा चैतेषां मिथ्यारूपता तथा प्रतिपादयिष्यामः । तन्नानुपमसुखावस्थान्तर. प्राप्तिलक्षणात्मस्वरूपं मुक्तिः, तत्सद्भावे बाधकप्रमाणप्रदर्शनात् , विशेषगुणोच्छेदविशिष्टात्मस्वरूपमुक्तिसद्भावे च प्रदशितं प्रमाणमिति । क्योकि प्रागभाव या ध्वंस का सत्त्व सार्वदिक नहीं होता जब कि इतरदेश में घटादि का अभाव तो माईदिक होता है। यदि घट का सत् और असत् उभयरूप मानेंगे तो असत् रूपता के कारण स्वदेशादि में भी उसका उपलम्भ न हो सकेगा। [आत्मा में नित्यत्वादि का एकान्त ] मृत्त्वसामान्य की तरह आत्मा भी नित्य ही है, सुख-दुःखादि तो उसके गुण हैं और उससे अन्य पदार्थरूप है अत: उनके विनाश से भी आत्मा का विनाश नहीं हो जाता। अन्य कार्यों के प्रति उसके अकर्तृत्व का तो हम भी निषेध नहीं करते हैं। तथा अन्य शब्दों से अनभिधेयत्व का भी हम निषेध नहीं करते क्योंकि हम सभी वस्तु को सभी शब्दों से अभिधेय नहीं मानते हैं। तथा यह जो कहा है कि अनेकान्त भावना से अविनाशी विशिष्ट शरीर का लाभ होता है इसमें कोई नियम नहीं है। अर्थात् विशिष्टशरीर के लाभ की बात असंगत है। क्योंकि उत्पत्तिशील देह आदि पदार्थ की अनश्वरता न्याययुक्त नहीं है । उत्पन्न भाव अवश्य विनाशी होता है। तदुपरांत, यदि अनेकान्तवाद को मान लिया जाय तो मुक्ति में भी अनेकान्त अनिवृत्त ही रहेगा, फलत: जो मुक्त है वही अमुक्त कहना होगा। अर्थात ऐसा मानने पर जो मुक्त है उसीको संसारी मानने को आपत्ति होगी। तथा अनेकान्त में भी आपको अनेकान्त ही मानना पड़ेगा, यह भी एक दोष होगा। वह इस प्रकार-वस्तु को सदसद् उभयरूप मानना यह अनेकान्त है । किन्तु इसमें भी अनेकान्त प्रसक्त होने पर सदसत्व रूप से इतर अन्य कोई रूप मानना पड़ेगा। उसी तरह वस्तु में नित्यानित्यत्व और नित्यानित्यत्व से इतर अन्य किसी रूप को भी मानने की आपत्ति आयेगी। [अद्वैतवादी अभिमत मोक्ष में असंगति ] अन्य वेदान्ती विद्वान कहते हैं-आत्मा एक ही है-ऐसा आत्मैकत्व का ज्ञान होने पर आत्मा का परमात्मा में लय हो जाता है । वे कहते हैं कि एकमात्र आत्मा की ही पारमार्थिक सत्ता है। शेष पदार्थों का आत्मा से भेद होने में कोई भी प्रमाण ही नहीं है, क्योंकि, प्रत्यक्ष तो पदार्थों के सद्भाव का ही ग्राहक है, उनके भेद का नहीं। अत: भेद का समारोपण सर्वत्र अविद्या के प्रभाव से ही होता है । किन्तु यह आत्माद्वैतवाद भी गलत है। आत्मा एक ही है- यह ज्ञान मिथ्याज्ञानरूप होने से उस ज्ञान में मोक्षसाधकता को मानना असंगत है । आत्मैकत्वज्ञान मिथ्या है यह आत्मा के प्रकरण में इसी ग्रन्थ में कहा जाने वाला है। सारांश, अनुपमसुखस्वरूप अवस्थान्तर की प्राप्ति वाले आत्मस्वरूप को मुक्ति मानना संगत नहीं है, क्योंकि मुक्ति में सुख मानने में जो बाधक है उसका प्रदर्शन किया हुआ है। विशेषगुणों के उच्छेद स्वरूप मुक्ति की सिद्धि में तो प्रमाण दिखाया हुआ है। [ नैयायिकपूर्वपक्ष समाप्त ] । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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