Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 654
________________ प्रथमखण्ड - का० १ - नित्यसुखसिद्धिवादे उ० न च सन्तानत्वं सामान्यं व्याप्त्या बुद्धचादिषु वृत्तिमत् सिद्धम्, तद्वृत्तेः समवायस्य निषिद्धत्वात्, तत्सत्वेऽपि तद्बलात् सन्तानत्वस्य बुद्धघादिसम्बन्धित्वे तस्य सर्वत्राऽविशेषादाकाशादिष्वपि नित्येषु सन्तानत्वस्य वृत्तेरनैकान्तिकत्वम् । न च समवायस्याऽविशेषेऽपि समदायिनोविशेषात् सन्तानत्वं बुद्धयादिष्वेव वर्तते नाकाशादिष्विति वक्तु ं युक्तम्, इतरेतराश्रयप्रसक्तेः सिद्धे हि सन्तानत्वस्याकाशादिव्यवच्छेदेन बुद्ध्यादिवृत्तित्वे विशेषत्वसिद्धिः तत्सिद्धेश्वान्यपरिहारेण तद्वृत्तित्वसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वम् अपि च, यदि समवायस्य सर्वत्राऽविशेषेऽपि बुद्ध्यादिविशेषगुण-सन्तानत्वयोः प्रतिनियताधाराधेयरूपता सिद्धिमासादयति तदा व्यर्थः समवायाभ्युपगमः, तद्व्यतिरेकेणापि तयोस्तद्रूपतासिद्धेः । अथ प्रमाणपरिदृष्टत्वात् समवायस्याभ्युपगमः न पुनः समवायिविशेषरूपताऽन्यथानुपपत्तेः । असदेतत्, तद्ग्राहक प्रमाणस्यैवाभावात् । तथाहि स सर्वसमवाय्यनुगतैकस्वभावो वाऽभ्युपगम्येत, तद्व्यावृत्तस्वभावो वा ? न तावत् तद्व्यावृत्तस्वभावः समवायः, सर्वतो व्यावृत्तस्वभावस्यान्याऽसम्ब ६१७ में प्रयोग करेंगे तो प्रदीपरूप साधर्म्य दृष्टान्त में हेतुविरह दोष हो जायेगा, क्योंकि द्रव्यविशेष (अग्नि) रूप प्रदीप में तो विशेषगुणाश्रित सन्तानत्व जाति का संभव ही नहीं । उपरांत, प्रतिवादी के मत में, अपने सभी आधारों में विद्यमान हो ऐसा नैयायिकसम्मत एक सत्तादिरूप सामान्य मान्य ही नहीं है, अतः प्रतिवादी के प्रति जातिरूप सन्तानत्व हेतु असिद्ध हुआ । [ सन्तानत्वसामान्य के संबन्ध की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि वृद्धयादि गुणों में व्यापकरूप से सन्तानत्व रूप सामान्य का सम्बन्ध भी सिद्ध नहीं है । समवाय का तो उसके सम्बन्धरूप में पहले ही निषेध किया हुआ है । कदाचित् समवाय की सत्ता मान ले तो भी, समवाय के आधार पर सन्तानत्व को यदि बुद्धि आदि से सम्बद्ध माना जाय तो समवाय सर्वत्र समानरूप से विद्यमान होने से आकाशादि के साथ भी सन्तानत्व का समवाय सम्बन्ध मानना होगा । फलतः सन्तानत्व हेतु आकाशादि में रह गया किन्तु वहाँ अत्यन्तोच्छेदरूप साध्य न होने से वह व्यभिचारी सिद्ध होगा । यदि ऐसा कहें कि समवाय तो यद्यपि सर्वत्र समानरूप से विद्यमान है किन्तु समवायिओं में विशेषता होती है और वह विशेषता ऐसी है कि जिससे सन्तानत्व बुद्धि आदि में ही है और आकाशादि में नहीं है । तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त है, सन्तानत्व आकाशादि में नहीं किन्तु बुद्धि आदि में ही रहता है यह सिद्ध होने पर उक्त विशेषता सिद्ध होगी और विशेषता सिद्ध होने पर सन्तानत्व आकाशादि में नहीं किन्तु बुद्धि आदि में ही रहता है यह सिद्ध होगा । तथा, समवाय सर्वत्र समान होने पर भी यदि बुद्धि आदि विशेषगुणों के साथ ही सन्तानत्व का नित्यरूप से आधाराधेयभाव सिद्ध होता है तो फिर समवाय की मान्यता व्यर्थ हो गयी क्योंकि आधाराधेयभाव के लिये तो उसकी कल्पना करते हैं और उसके विना भो आधाराधेयभाव तो सिद्ध होता है । [ समवाय के विषय में प्रत्यक्षादि कोई प्रमाण नहीं है ] यदि ऐसा कहें कि - समवाय तो प्रमाण से सुनिश्चित होने से यिओं की विशेषरूपता को उपपन्न करने के लिये तो यह ठीक नहीं है वाला कोई प्रमाण ही नहीं है । यह देखिये वस्तुमात्र के दो स्वभाव Jain Educationa International For Personal and Private Use Only माना गया है, नहीं कि समवाक्योंकि समवाय को सिद्ध करने होते हैं अनुवृत्तस्वभाव और a www.jainelibrary.org

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