Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 658
________________ प्रथम खण्ड - का ० १ - नित्यसुख सिद्धिवादे उ० अथोपादानोपादेयभूतबुद्धयादिलक्षणं प्रवाहरूपमेव सन्तानत्वं हेतुत्वेन विवक्षितम् । ननु एवं तस्य तथाभूतस्याऽन्यत्राननुवृत्तेरसाधारणानैकान्तिकत्वम् अभ्युपगमविरोधश्च । न हि परेण बुद्धिक्षणोपादानोऽपरः सर्व एव बुद्धिक्षणोऽभ्युपगम्यते एकसन्तानपतितः । तथाभ्युपगमे वा मुक्तावस्थायामपि पूर्वपूर्वबुद्धयुपादानक्षणादुत्तरोत्तरोपादेय बुद्धिक्षणस्य सम्भवान्न बुद्धिसन्तानस्यात्यन्तोच्छेदः साध्यः सम्भवति यथोक्त हेतु सद्भाव बाधितत्वात् । अथ पूर्वापरसमानजातीयक्षणप्रवाहमात्रं सन्तानत्वं तेनाऽयमदोषः । ननु एवमपि हेतोरसाधारणत्वं तदवस्थम् । न ह्येोकसन्तानरूपमन्यानुयायि, व्यक्तेर्व्यक्त्यन्तराननुगमात्, अनुगमे वा सामान्यपक्षभावी पूर्वोक्तो दोषस्तदवस्थः, अनैकान्तिकश्च पाकजपरमाणुरूपादिभिः तथाविधसन्तानस्वस्य तत्र सद्भावेऽप्यत्यन्तोच्छेदाभावात् । अपि च, सन्तानत्वमपि भविष्यति अत्यन्तानुच्छेदश्चेति विपर्यये हेतोर्बाधकप्रमाणाभावेन संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वादनैकान्तिकः । विपक्षेऽदर्शनं च हेतोर्बाधिकं प्रमाणं प्रागेव प्रतिक्षिप्तम् । ६२१ पडेगा जो आप तो नहीं मानते हैं, यदि मानेंगे तो उस नये सम्बन्ध को भी सम्बद्ध करने के लिये फिर नया-नया सम्बन्ध मानने में अनवस्था दूषण लगेगा । विशेषण- विशेष्य भाव को यदि समवाय का दो समवायी के साथ सम्बन्धकारक सम्बन्धरूप मानेंगे तो भी अनवस्था दूषण तो ज्यों का त्यों रहेगा ही । यदि ऐसा कहें कि समवाय स्वयं असम्बद्ध होने पर भी सम्बन्धरूप है । इसीलिये दो समवायी पदार्थ के सम्बन्धकारक रूप में उस को मान सकते हैं तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तो दो समवायी को ही परस्पर सम्बन्धकारकरूप से मान सकते हैं यह उत्तर पहले भी दे दिया है । तदुपरांत, दो समवायी के बीच सम्बन्धकारकरूप में मान्य समवाय अथवा तो कोई भी अन्य पदार्थ यदि नित्य होगा तो वह किसी भी कार्य को जन्म नहीं दे सकता, क्योंकि नित्य पदार्थ विरोध के कारण क्रम से या एक साथ अर्थक्रियाकारक नहीं बन सकता यह हम आगे दिखायेंगे । जब पदार्थ में अर्थक्रियाकारित्व नहीं घटेगा तो उसका सत्त्व भी अमान्य हो जायेगा । यदि कहें कि हम अर्थक्रियाकारित्वरूप सत्व को नहीं किन्तु सत्ताजातिसम्बद्धत्वरूप सत्त्व को मानेंगे तो यह भी ठीक नहीं क्योंकि सत्ताजातिसम्बद्धत्वरूप सत्त्व का पहले निषेध किया है और आगे भी किया जायेगा । निष्कर्ष समवाय असिद्ध होने से यही सिद्ध होता है कि सन्तानत्व किसी भी सम्बन्ध से बुद्धिसन्तान में वृत्तिमत् नहीं है । अत: आपने जो अनुमान कहा था कि "बुद्धि आदि के सन्तान का अत्यन्त विनाश होता है क्योंकि उनमें सन्तानत्व है, जैसे प्रदीपसन्तान में ' - इस अनुमान में सन्तानत्व हेतु असिद्ध कैसे नहीं है ? ! [ उपादानोपादेयबुद्धिप्रवाह रूप सन्तानत्व हेतु में दोष ] यदि कहें कि सन्तानत्व हेतु को जातिस्वरूप न मान कर उपादान- उपादेयभावविशिष्टबुद्धि आदि की क्षणपरम्परारूप माना जाय तो उक्त कोई दोष नहीं है तो यह बात गलत है क्योंकि यहाँ असाधारण अनैकान्तिक दोष सावकाश है । वह इस प्रकार:- जो हेतु सभी सपक्ष और विपक्ष से व्यावृत्त हो उसको असाधारण अनैकान्तिक कहा जाता है। प्रस्तुत में बुद्धि आदि क्षणपरम्परारूप सन्तानव हेतु प्रतिवादी के मत से विपक्षव्यावृत्त तो है ही, और सपक्ष व्यावृत्त इसलिये है कि बुद्धि आदि क्षणपरम्परारूप सन्तानत्व सिर्फ बुद्धि आदि में ही रहेगा, प्रदीपादि में उसकी अनुवृत्ति नहीं रहती, * बुद्धयादिक्षणप्रवाहरूपमेव इति पाठशुद्धिरत्र गवेषणीया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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