Book Title: Sanmati Tark Prakaran Part 01
Author(s): Abhaydevsuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 640
________________ प्रथम खण्ड - का० १ - नित्य सुख सिद्धिवादे पूर्व ० शरीरादोनां कार्यत्वात् कथं नित्यता ? प्रमाणबाधितत्वाच्छरीरादीनां नित्यत्वमशक्यं साधयितुम् । नन्वेतत् सुखेऽपि समानम्, दृष्टस्य सुखस्योपजननाऽपायधर्मकस्य तद्वैकल्यं प्रमाणबाधितत्वात् कथं परिपतु शक्यम् ? अथ स्यादेष दोषः यदि दृष्टस्यैव सुखस्य नित्यत्वमस्माभिरुपेयेत यावता दृष्टसुखव्यतिरिक्तमात्मधर्मत्वेनाभिमतं नित्यं ततश्च कथं दृष्टविरोध: ? असदेतत् तत्र प्रमाणाऽभावादित्युक्तत्वात् । यदप्यनुमानं तत्सिद्धये प्रदर्शितं तदपि प्रवृत्तेरनिष्टप्रतिषेधार्थत्वान्नैकान्तेनाऽभिमत साध्यसाधकम् । , मा भूदनुमानम्, आगमस्तु नित्यसुखसाधकस्तस्यामवस्थायां भविष्यति, तथा च पूर्वमुक्तम् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" इति असदेतत् ; तदागमम्यैतदर्थत्वाऽसिद्धेः । अथापि कथंचिद् नित्यसुखप्रतिपादकत्वं तस्याभ्युपगम्यते तथाप्यात्यन्तिके संसारदुःखाभावे सुखशब्दो गौणः, न तु नित्यसुखप्रतिपादकत्वाद् मुख्यः । अथ कथं दु खाभावे सुखशब्द उपेयते ? लोकव्यवहाराद्धि शब्दार्थसम्बन्धावगमः, सुखशब्दश्च दुःखाभावे लोकेऽनवगतसम्बन्धः कथमागमे दुःखाभावं प्रतिपादयति ? नंषः दोष:, न हि लोके मुख्ये एवार्थे प्रयोगः शब्दानां किन्तु गौणेऽपि । तथाहि दुःखाभावेऽपि सुखशब्दं प्रयुञ्जानाः लोका उपलभ्यते, यथा ज्वरादिसन्तप्ता यदा ज्वरादिभिविमुक्ता भवन्ति तदाऽभिदधति 'सुखिन: संवृत्ता स्मः' इति । किच. इष्टार्थाधिगमार्थायां च मुमुक्षो: प्रवृत्तौ रागनिबन्धना तस्य प्रवृत्तिर्भवेत्, ततश्च न मोक्षावाप्तिः, क्लेशानां बन्धहेतुत्वात् । ६०३ देशादि की व्यर्थता दूर हो जाने से सुख के प्रति वे अन्यथासिद्ध है । उपरोक्त दो अनुमान से तो साध्यसिद्धि का तभी संभव था यदि प्रवृत्ति और उपदेश एकान्ततः इष्ट प्राप्ति के लिये ही होने का नियम होता । इष्टप्राप्ति का उद्देश न होने पर उपदेश और प्रवृत्ति देखी जाती है अतः पूर्वोक्त दोनों हेतु सध्यद्रोही होने से उनसे इष्ट साध्य की सिद्धि होना दूर है । देख लो, चिकित्साशास्त्रोक्त उपायों को आचरने वाले रुग्ण मानवों की प्रवृत्ति अनिष्टभूत रोग के प्रतिकार के लिये ही होती है, कुछ पाने के लिये नहीं । उपरांत चिकित्साशास्त्रों का उपदेश भी रोगनाश के लिये ही है । फिर कैसे कहा जाय कि उपदेश और मुमुक्षु की प्रवृत्ति इष्टप्राप्ति के लिये ही होती हैं और अन्य किसी के लिये नहीं ?? ! [ अनिष्टाननुषक्त इष्ट का सद्भाव नहीं होता ] तथा, यह भी अवश्य मानना पड़ेगा कि इष्ट और अनिष्ट दोनों एक-दूसरे के अवश्य सहचारी है, फलतः यदि इष्ट प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति करेंगे तो उस अवस्था में अनिष्ट का संवेदन न इच्छने पर भी आ पड़ेगा, क्योंकि अनिष्ट से सर्वथा असम्बद्ध ऐसा कोई इष्ट है ही नहीं । [ इष्टमात्र अनिष्टानुषंगी ही है । ] अतः अनिष्ट से बचने के लिये प्रवृत्ति करने पर तदनुषंगी इष्ट को भी छोडना ही होगा क्योंकि इष्ट से अनिष्ट को अलग करके उसका त्याग करना शक्य नहीं है । तथा दृष्टबाघ भी प्रसक्त है । अर्थात् मुक्ति में अनित्यसुख से विपरीत नित्य सुख मानने में प्रत्यक्ष बाध भी है । यदि अनित्यसुख को न मान कर मुक्ति अवस्था में नित्य सुख मानना है जिसमें न केवल प्रमाण अभाव ही है अपितु प्रमाणविरोध भी है, तो फिर नित्यसुखभोग के साधनभूत नित्यशरीरादि की कल्पना भी सुन्दर ही कही जायेगी, वाह ! कितनी सुन्दर है आपकी नित्यसुख की मान्यता !!! इस प्रकार नित्य शरीर और नित्य सुख की कल्पना में हृष्टबाध तो समान ही है। यदि कहें कि शरीरादि तो काय हैं वे कैसे नित्य हो सकते हैं ? शरीरादि की नित्यता प्रमाणबाधित होने से सिद्ध करना अशक्य है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702