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सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड १
'सत्तासम्बन्धित्वात्' इत्यत्र च यदि 'स्वरूपसत्तासम्बन्धित्वात्' इति हेतुस्तदाऽनकान्तिकः सामान्य-समवायादिभिः, एषां प्रतिषिध्यमानद्रव्य-कर्मभावे सति तथाभूतसत्तासम्बन्धित्वेऽपि गुणत्वाऽ. सिद्धेः । न च सामान्यादे: स्वरूपसत्ताऽभावः, खरविषाणादेरविशेषप्रसंगादिति प्रतिपादितत्वात । अथ 'भिन्नसत्तासम्बन्धित्वात्' इति हेतुस्तदाऽसिद्धः, भिन्नसत्ताऽभावेन खरविषाणादेरिव शब्दस्यापि तत्सं. बन्धित्वाऽसिद्धेः । यत्तु भिन्नसत्तासद्भावे तत्सम्बन्धात् सत्प्रत्ययविषयत्वे च शब्दादेः प्रयोगद्वयमुपन्यस्तम् , तत्र यदेव चेतनस्य सत्त्वं तदेव यद्यचेतनस्यापि स्यात् तदा चेतनाऽचेतनेषु सत्प्रत्ययविषयत्वात् स्याद् भिन्नसत्तासंबन्धित्वम् , न च यदेव चेतनस्य सत्त्वं तदेवाऽचेतनस्य, तत्सदृशस्यापरस्यान्यत्र भावादिति सदृशपरिणामलक्षणं सामान्यं प्रतिपादयिष्यन्तो निर्णेष्यामः । तदेवं शब्दस्य गुणत्वाऽसिद्धः नित्यत्वे सत्यस्मदाद्युपलभ्यमानगुणाऽधिष्ठानत्वाऽसिद्धरम्बरस्य, साधनविकलो दृष्टान्त इति स्थितम् ।
लोगों को शब्द भी अन्य इन्द्रिय से प्रतीत होने का मान सकते हैं अतः हेतु ही शब्द में असिद्ध बन गया । यदि कहें कि उन लोगों को शब्द का भले ही श्रवण भिन्न इन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता हो किन्तु हम लोगों को तो नहीं ही होता है-तो इसी तरह चन्द्र-सूर्यादि के लिये भी कह सकते हैं कि देवताओं को भले ही दर्शनभिन्न इन्द्रिय से चन्द्र-सूर्य का ग्रहण होता हो, हम लोगों को तो नहीं ही होता । अब यदि ऐसा अनुमानप्रयोग करें कि-सभी देश में सभी काल में सभी लोगों को शब्द का सिर्फ एक ही बाह्यन्द्रिय से प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि वह बाह्य न्द्रिय का विषय होता हुआ विशेषगृण है। तो यह अनुमान भी असत् है। कारण, शब्द में गुणत्व का निषेध किया जा चुका है अत: 'विशेषगुण' हेतु ही असिद्ध है। यदि कहें कि हम चन्द्र-सूर्यादि को हम लोगों के प्रत्यक्ष का विषय ही नहीं मानते हैं-तो इस में स्पष्ट ही अनुभवबाध है अतः इस अनुमान की बात ही जाने दो।
[सत्तासम्बन्धित्वघटित हेतु में अनेक दोष ] शब्द में गुणत्व की सिद्धि के लिये प्रयुक्त किये गये हेतु में जो 'सत्तासम्बन्धित्वात्' यह अंश है वहाँ भी यदि 'सत्ता' शब्द से स्वरूप सत्ता को लेकर यह हेतु किया गया हो तब तो वह सामान्य और समवायादि में साध्यद्रोही बन जायेगा, क्योंकि सामान्यादि में द्रव्यत्व और कर्मत्व तो प्रतिषिद्ध ही है और स्वरूपसत्ता तो सामान्य-विशेष और समवाय में होती ही है, किन्तु वे गुणात्मक नहीं है। ऐसा मत कहना कि-'सामान्यादि में स्वरूपसत्ता का अभाव है'-क्योंकि तब तो वे गर्दभसींग के जैसे ही असत् हो जाने का प्रसंग होगा-यह तो पहले भी कह दिया है। [द्र. पृ. ४४१-११ ] यदि हेतु के 'सत्ता' पद से द्रव्यादिभिन्न स्वतन्त्र सत्ता को लेकर 'भिन्नसत्तासम्बन्धिता' को हेतु किया जाय तो वैसी भिन्न सत्ता गर्दभसींग की तरह स्वयं ही असत् होने से शब्द के साथ उसका संबन्ध ही असिद्ध होगा, अर्थात् अप्रसिद्धि दोष हो जायेगा।
तथा आपने भिन्न ( =स्वतन्त्र ) सत्ता सिद्ध करने के लिये तथा उसके सम्बन्ध से शब्द और बुद्धि आदि में सत्-इत्याकार बुद्धिविषयता को सिद्ध करने के लिये जो प्रयोगयुगल इस तरह दिखाया था-जिनके भिन्न भिन्न होते हुए भी जो अभिन्न रहता है वह उससे पृथक होता है, उदा० वस्त्रादि बदलते रहते हैं किन्तु अपना देह नहीं बदलता, तो देह वस्त्रादि से पृथक् होता है। बुद्धि आदि के भिन्न भिन्न होते हुए भी उन में सत्ता तो अभिन्न ही प्रतीत होती है क्योंकि सर्वत्र द्रव्यादि में यह सत् है-यह सत् है' इस प्रकार का भान और संबोधन एकरूप से होता आया है ।....इत्यादि, उसके
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