Book Title: Samarpan Dedication Badi Diksha of Sadhvi Sanghmitraji
Author(s): JAINA Education Committee
Publisher: Veerayatan

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Page 28
________________ चउत्थं अज्झयणं चौथा अध्याय सारांश जीवन की कोई भी क्रिया बिना हिंसा के संभव नहीं तो साधक किस प्रकार से कर्मबंध से बच सकता है और मुक्ति भी पा सकता है ? यह जीवन का गहन तम प्रश्न है। और भगवान का एक ही शब्द में इतना सुंदर जवाब है कि वह एक ही नहीं सैंकड़ों प्रश्नों का एक ही साथ समाधान दे सकता है । वो कहते हैं, जयं चरे, जयं चिढ़े ...."विवेक" अगर हर क्रिया विवेक के साथ करोगे तो कर्मबंध नहीं होगा। जीवन का ऐसा कौनसा बिंदु है जिसमें साधक साधना के क्षेत्र में निश्चिंत और निराबाध आगे चल सकता है ? दो ही उपाय है -एक ज्ञान का एक क्रिया का । तीर्थंकर महावीर ने अपने साधकों से कहा है पहले ज्ञान है फिर दया । प्रबुद्ध व्यक्ति, जागृत व्यक्ति जो भी कुछ करेगा उसके द्वारा धर्म ही होगा । “पढमं नाणं, तओ दया"। पहले ज्ञान है फिर सारी क्रियाएँ और बादमें मोक्ष है। जीवन की तमाम प्रवृत्तियों के बारे में भगवान ने यही कहा कि पहले समझो बादमें करो। पहले आँखे खोलो फिर चलो। संयम की शुरूवात, अध्यात्म की शुरूवात, मुक्तिमार्ग की शुरूआत ज्ञान से है, जागृति से है, विवके से है। स्व को जानो, पर को जानो, विश्व को जानो। तभी तुम्हें समझ में आएगा कि तुम्हें किस दिशा में चलना है। ज्ञानपूर्वक चलने वाला व्यक्ति कभी भी मार्ग से भटक नहीं सकता। छज्जीवणिया अजयं चरमाणो उ पाणभूयाइं हिसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होई कडुयं फलं ।। १ ।। अजयं चिट्ठमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। २ ।। अजयं आसमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्मं तं से होइ कडुयं फलं ।। ३ ।। SAMARPAN - DEDICATION 27

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