Book Title: Samaj Sangathan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 7
________________ समाज-संगठन ४ एकको उनके छत्ते के पास तक जानेका साहस नहीं होता । साधारण मक्खियोंमें वह शक्ति नहीं है, इसलिये उन्हें हर कोई मार गिराता है । इससे केवल व्यक्तियोंकी संख्या के अधिक होनेका नाम 'समूह ' या 'समूह - शक्ति' नहीं है। बल्कि उनका मिलकर 'एक प्राण' और 'एक उद्देश्य' हो जाना ही समूह या समूह-शक्ति कहलाता है। एक कुटुम्बके किसी व्यक्ति पर जब कोई अत्याचार करता है तो उस कुटुम्बीके सभी लोगोंको एक दम जोश आ जाता है और वे उस अत्याचारीको उसके अत्याचार का मजा ( फल ) चखानेके लिये तैयार हो जाते हैं, इसीको 'एकप्ररण होना' कहते हैं। इसी तरह पर, जब कुटुम्बको कोई मनुष्य कुटुम्बके उद्देश्यके विरुद्ध प्रवर्त्तता है, अन्यायमार्ग पर चलता है तो उससे भी कुटुम्ब के लोगों के हृदय पर चोट लगती है और वे शरीर के किसी अंग में उत्पन्न हुए विकार के समान, उसका, प्रतिशोध करनेके लिये तैयार हो जाते हैं; इसको भी 'एक प्रारण होना' कहते हैं। साथ ही, यह सब उनके एक उद्दश्य' होनेको भी सूचित करता है । इस प्रकार एक प्राण और एक उद्देश्य होकर जितनी भी अधिक व्यक्तियां मिलकर एक साथ काम करती हैं उतनी ही अधिक विघ्नबाधाओं से सुरक्षित रहकर वे शीघ्र सफल मनोरथ होती हैं । यही समाज संगठन का मुख्य उद्देश्य है और इसी ख़ास उद्दश्यको लेकर विवाहको सृष्टिकी गई है। इसमें पूरा 'रक्षातत्व' भरा हुआ है एक विवाह होने पर दोनों पक्षकी कितनी शक्तियां परस्पर मिलती हैं, एक दूसरेके सुख दुःखमें कितनी सहानुभूति बढ़ती है और कितनी समवेदना प्रगट होती है इसका अनुभव वे सब लोग भले प्रकार कर सकते हैं जो एक सुव्यवस्थित कुटुम्बमें रहते हों । युद्ध में दो राज-शक्तियों के परस्पर मिलने से एक सूत्रमें बँधनेसे - जिस प्रकार आनन्द मनाया जाता है उसी प्रकार विवाह

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