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समाज-संगठन
जिससे वे परावलम्बी न बनकर प्रायः स्वावलम्बी बर्न और देश धर्म तथा समाजके लिये उपयोगी सिद्ध हों।
(७) कुटुम्ब भरमें एकता, सत्यता, समुदारता, दयालुता, गुणग्राहकता, आत्मनिर्भरता और सहन शीलता आदि गुणोंका प्रचार करना । साथही, ईर्षा, द्वष और अदेखसका-भाव आदि अवगुणों को हटाना। (E) रूढ़ियोंका दास न बनकर कुरीतियोंको दूर करना और जो कुछ युक्ति तथा प्रमाणसे समुचित और हित रूप अँचे उसीके अनुसार चलना।
(E) धर्म प्रचार और समाज के उत्थानकी बरावर चिंता रखना और धार्मिक कार्यों में सदैव योग तथा सहायता देते रहना।
(१०)मितव्ययी (किफायतशार) बनना परन्तु कृपण नहीं होना । साथ ही पूज्यकी पूजाका कभी व्यतिक्रम न करते हुये बराबर अतिथि सत्कार में उद्यमी रहना और उसे यथाशक्ति करना
प्रत्येक स्त्री-पुरुषको इन दस बातोंको अपना कर्त्तव्य क्रम बना लेना चाहिये अपने समस्त प्राचार व्यवहारका सूत्र समझना चाहिये और विवाहके गठजोड़ेके समय इनकी भी गांठ बांध लेनी चाहिये
अंतरङ्ग-दृष्टिसे विचार . यह तो हुआ बाह्य जगतकी दृष्टिसे विचार। अब अंतरग जगत पर दृष्टि डालिये । अंतरंग जगत पर दृष्टिडालनेसे मालूम होता है कि यह जीवात्मा अनादिकोलसे मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, मद, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, जुगुप्मा अज्ञान, अदर्शन, अन्त राय, और वेदनीय आदिक सैकड़ों और हजारों कर्मशत्र ओंसे घिरा हुआ है, जिन सबने इसे बन्धनमें