Book Title: Samaj Sangathan
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir

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Page 17
________________ • ........ ..mor e समाज-संगठन बस गृहस्थाश्रम ही सुग्वाश्रम बन सकता है * । इसीलिए गृहस्थाश्रम से पहिले आचार्यों ने एक दूसरे आश्रम का विधान किया है जिसका नाम है ब्रह्मचर्याश्रम-अर्थात नावारी रहकर बिद्याभ्यास करते हुए शारिरिक और मानसिक शक्तियों को केन्द्रित एवं विकसित करना । इस आश्रम का खास उद देश्य इन्हीं सब बातों की पूर्ति करना है जो विवाह के मुख्य उद्देश्य समाज संगठन को पूर्ति तथा गृहस्थाश्रम के पालन के लिए जरूरी हैं । भगवज्जिनसेनाचार्य ने, आदि पुराण में, इन सब आश्रमों का क्रम इस प्रकार वर्णन किया है: ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थोत्थभिक्षकः । इत्याश्रमास्तु जैनानोमुत्तरोत्तरशुद्धितः ॥३६-१५३।। * मुनि रत्नचद जी ने भी 'कर्तव्य-कौमुदी' में लिखा हैयावन्नार्जयते धनं सुविपुलं दारादिरक्षाकरं । यावन्नैव समाप्यते दृढतरा विद्याकला वाश्रिता ।। यावन्नो वपुषो धियश्च रचना प्राप्नोति दादय परं। तावन्नो सुखदं वदन्ति विबुधा ग्राह्य गृहस्थाश्रमं ।। अर्थात-जब तक इतना प्रचुर धन पैदा न करलिया जाय अथवा पास न हो जिससे अपनी तथा स्त्री-पुत्रादि को यथेष्ट रक्षा होसके घर का खर्च चल सके, जब तक विद्या और कला का अभ्यास अच्छी तरह से पूरा न हो जाय और शरीर के अंगों की रचना तथा बुद्धि का विकास अच्छी तरह से होकर उनमें पूर्ण दृढ़ता न आ जाय तव तक गृहस्थाश्रम का ग्रहण करना सुखदायी नहीं हो सकता। ऐसा बुद्धिमानों का मत है।

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