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समाज-संगठन
डालकर पराधीन बना रक्खा है और इसकी अनन्त शक्तियोंका घात कर रक्खा है । इसी लिये यह आत्मा अपने स्वभावसे च्युत होकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है और अनेक योनियों में परिभ्रमण करता हुआ नाना प्रकारके दुःख और कष्टोंको भोग रहा है। इसका मुख्य और प्रधान उद्देश्य है 'बन्धनसे छुटकर स्वाधीनता प्राप्त करना।
परन्तु बन्धनसे छटना आसान काम नहीं है । एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्रकी परतंत्रतासे अलग होना चाहता है-स्वाधीन बननेकी इच्छो रखता है--तब उसे रातदिन इस विषयमें प्रयत्नशील रहनेकी जरूरत होता है । बड़े २ उपायोंकी योजना करनी पड़ती है। घोर संकट सहन करने होते हैं, वन्धनोंमें पड़ना होता है, हानियां उठानी पड़ती हैं, अपने स्वार्थकी बलि देनी होती है और बहुतसे ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जिनका करना उसे इष्ट नहीं होता और न वे उसके उद्देश्य ही होते हैं परन्तु बिना उनके किये उसे अपने उद्देश्योंमें सफलता प्राप्त नहीं हो सकती और इस लिये वह उन्हें लाचारीकी दृष्टि से करता है। साथ ही वह अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नहीं होता और न दूसरे राष्ट्रकी मोह-माया में फंसता है । तब कहीं वह वर्षों के बाद परतंत्रताकी बेड़ीसे छूटकर स्वतंत्रता की शीतल छायामें निवास करता है। इसी तरह पर उस आत्माको भी, जो कर्मके बन्धनसे छूटना चाहता है, अपनो उद्देश्य सिद्धिके लिये बड़े बड़े प्रयोग करने होते हैं और नाना प्रकारके कष्ट उठाने पड़ते हैं। उसे बन्ध मुक्त होने के लिए बन्धनमें भी पड़ना होता है, कर्मसे छटनेके लिए कर्म भी करना पड़ता है, हानिसे बचनेके लिए हानि भी उठानी पड़ती है, पाप से सुरक्षित रहने के लिए पाप भी करना होता है और शत्रु ओंसे पिंड छुड़ाने के लिए शत्रु ओंका आय भी लेना पड़ता है । परन्तु इन सब अवस्थाओंमें होकर