Book Title: Samadhi aur Sallekhana
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 4
________________ समाधि और सल्लेखना समाधि और सल्लेखना के विकल्प सताये बिना नहीं रहते। ऐसी स्थिति में देह-जीव को एक मानने वाले मोही-बहिरात्माओं की तो बात ही क्या है? उनका प्रभावित होना व भयभीत होना तो स्वाभाविक ही है। मरणकाल में चारित्रमोह के कारण यद्यपि ज्ञानी के तथा अज्ञानी के बाह्य व्यवहार में अधिकांश कोई खास अन्तर दिखाई नहीं देता, दोनों को एक जैसा रोते-बिलखते, दुःखी होते भी देखा जा सकता है; फिर भी आत्मज्ञानी-सम्यग्दृष्टि व अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि के मृत्युभय में जमीनआसमान का अन्तर होता है; क्योंकि दोनों की श्रद्धा में भी जमीनआसमान जैसा ही महान अन्तर आ जाता है। स्व-पर के भेदज्ञान से शून्य अज्ञानी मरणकाल में अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से प्राण छोड़ने के कारण नरकादि गतियों में जाकर असीम दुःख भोगता है; वहीं ज्ञानी मरणकाल में वस्तुस्वरूप के चिन्तन से साम्यभावपूर्वक देह विसर्जित करके 'मरण' को 'समाधिमरण' में अथवा मृत्यु को महोत्सव में परिणत कर स्वर्गादि उत्तमगति को प्राप्त करता है। यदि दूरदृष्टि से विचार किया जाय तो मृत्यु जैसा मित्र अन्य कोई नहीं है, जो जीवों को जीर्ण-शीर्ण-जर्जर तनरूप कारागृह से निकाल कर दिव्य देह रूप देवालय में पहुँचा देता है। कहा भी है - "मृत्युराज उपकारी जिय कौ, तन सों तोहि छुड़ावै। नातर या तन वन्दीगृह में, पड़ौ-पड़ौ विललावै।।" कल्पना करें, यदि मृत्यु न होती तो विश्व व्यवस्था कैसी होती? अरे! सम्यग्दृष्टि की दृष्टि में तो मृत्यु कोई गंभीर समस्या ही नहीं है; क्योंकि उसे मृत्यु में अपना सर्वस्व नष्ट होता प्रतीत नहीं होता । तत्त्वज्ञानी यह अच्छी तरह जानता है कि मृत्यु केवल पुराना झोंपड़ा छोड़कर नये भवन में निवास करने के समान स्थानान्तर मात्र हैं, पुराना मैला-कुचैला वस्त्र उतारकर नया वस्त्र धारण करने के समान है; परन्तु जिसने आत्मा को नहीं जाना, स्वयं की अनन्त शक्तियों और वस्तु स्वातंत्र्य के सिद्धान्त को न मानकर, धर्म को न पहचान कर जीवन भर पापाचरण ही किया हो, आर्त-रौद्रध्यान ही किया हो, नरक-निगोद जाने की तैयारी ही की हो, उसका तो रहा-सहा पुण्य भी अब क्षीण हो रहा है, उस अज्ञानी और अभागे का दुःख कौन दूर कर सकता है? अब उसके मरण सुधरने का भी अवसर समाप्त हो गया है; क्योंकि उसकी तो अब गति के अनुसार मति को बिगड़ना ही है। सम्यग्दृष्टि को देह में आत्मबुद्धि नहीं रहती। वह देह की नश्वरता, क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होता है। वह जानता है कि - "नौ दरवाजे का पींजरा, तामें सुआ समाय । उड़वे को अचरज नहीं, अचरज रहवे माँहि॥" ___ अतः उसे मुख्यतया तो मृत्युभय नहीं होता। किन्तु कदाचित् यह भी संभव है कि सम्यग्दृष्टि भी मिथ्यादृष्टियों की तरह आँसू बहाये । पुराणों में भी ऐसे उदाहरण उपलब्ध हैं - रामचन्द्रजी क्षायिक सम्यदृष्टि थे, तद्भव मोक्षगामी थे; फिर भी छह महीने तक लक्ष्मण के शव को कंधे पर ढोते फिरे। कविवर बनारसीदास की मरणासन्न विपन्न दशा देखकर लोगों ने यहाँ तक कहना प्रारंभ कर दिया था कि - “पता नहीं इनके प्राण किस मोह-माया में अटके हैं? लोगों की इस टीका-टिप्पणी को सुनकर उन्होंने स्लेट पट्टी माँगी और उस पर लिखा - ज्ञानकुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना। प्रगट्यो रूप स्वरूप अनंत सु सोहना ।। जा परजै को अंत सत्यकरि जानना। चले बनारसी दास फेरि नहिं आवना ।। १. ज्ञानरूपी फरसा (हथियार)।

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