Book Title: Samadhi aur Sallekhana
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 5
________________ समाधि और सल्लेखना समाधि और सल्लेखना अतः मृत्यु के समय ज्ञानी की आँखों में आँसू देखकर ही उसे अज्ञानी नहीं मान लेना चाहिए, क्योंकि वह अभी श्रद्धा के स्तर तक ही मृत्युभय से मुक्त हो पाया है; चारित्रमोह जनित कमजोरी तो अभी है ही न? फिर भी वह विचार करता है कि - "स्वतंत्रतया स्व-संचालित अनादिकालीन वस्तु व्यवस्था के अन्तर्गत 'मरण' एक सत्य तथ्य है, जिसे न तो नकारा ही जा सकता है, न टाला ही जा सकता है और न आगे-पीछे ही किया जा सकता है। सर्वज्ञ के ज्ञान और कर्म सिद्धान्त के अनुसार भी जीवों का जीवन-मरण व सुख-दुःख अपने-अपने स्वकाल में कर्मानुसार ही होता है - ऐसा मानने में अकाल मृत्यु में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि वह तो निमित्त सापेक्ष कथन है। वस्तुतः अकाल मृत्यु भी अपने स्वकाल में ही होती हैं; क्योंकि प्रत्येक कार्य के सम्पन्न होने में पाँच समवाय (कारण) होते ही हैं। उन पाँच कारणों में एक कार्यमात्र स्व-काल भी एक कारण है। यद्यपि ज्ञानी व अज्ञानी अपने-अपने विकल्पानुसार इन मरण जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों को टालने के अन्त तक भरसक प्रयास करते हैं; तथापि उनके वे प्रयास सफल नहीं होते, हो भी नहीं सकते। अंततः इस मृत्यु के पर्यायगत सत्य से तो सबको गुजरना ही पड़ता है। जो विज्ञजन तत्त्वज्ञान के बल पर इस मृत्यु के सत्य को स्वीकार कर लेते हैं, उनका मरण समाधिमरण के रूप में बदल जाता है और जो अज्ञजन उक्त पर्यायगत मरण सत्य को स्वीकार नहीं करते, उसे टालने के अन्तिम क्षण तक प्रयत्न करते रहते हैं, वे अत्यन्त संक्लेशमय परिणामों से मरकर नरकादि गतियों को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि - ज्ञानीजन स्वतंत्र-स्वचालित वस्तुस्वरूप के इस प्राकृतिक तथ्य से भलीभाँति परिचित होने से श्रद्धा के स्तर तक मृत्युभय से भयभीत नहीं होते और अपना अमूल्य समय व्यर्थ चिन्ताओं में व आकुलता में बर्बाद नहीं करते । किन्तु इस तथ्य से सर्वथा अपरिचित अज्ञानीजन अनादिकाल से हो रहे जन्म-मरण एवं लोक-परलोक के अनन्त व असीम दुःखों से बे-खबर होकर जन्ममरण के हेतुभूत छोटी-छोटी समस्याओं को तूल देकर अपने अमूल्य समय व शक्ति को बर्बाद करते हैं, यह भी एक विचारणीय बिन्दु है। ऐसे लोग न केवल समय व शक्ति बर्बाद ही करते हैं, बल्कि इष्टवियोगज आर्त-ध्यान करके प्रचुर पाप भी बाँधते रहते हैं। यह उनकी सबसे बड़ी मानवीय कमजोरी है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि - जब भी और जहाँ कहीं भी दो परिचित व्यक्ति बातचीत कर रहे होंगे वे निश्चित ही किसी तीसरे की बुराई भलाई या टीका-टिप्पणी ही कर रहे होंगे। उनकी चर्चा के विषय राग-द्वेषवर्द्धक विकथायें ही होंगे। सामाजिक व राजनैतिक विविध गतिविधियों की आलोचना-प्रत्यालोचना करके वे ऐसा गर्व का अनुभव करते हैं, मानों वे ही सम्पूर्ण राष्ट्र का संचालन कर रहे हों। भले ही उनकी मर्जी के अनुसार पत्ता भी न हिलता हो । नये जमाने को कोसना; बुरा-भला कहना व पुराने जमाने के गीत गाना तो मानो उनका जन्मसिद्ध अधिकार ही है। उन्हें क्या पता कि वे यह व्यर्थ की बकवास द्वारा विकथायें एवं आर्त-रौद्रध्यान करके कितना पाप बाँध रहे हैं, जोकि प्रत्यक्ष कुगति का कारण है। भला जिनके पैर कब्र में लटके हों, जिनको यमराज का बुलावा आ गया हो, जिनके माथे के धवल केश मृत्यु का संदेश लेकर आ धमके हों, जिनके अंग-अंग ने जवाब दे दिया हो, जो केवल कुछ ही दिनों के मेहमान रह गये हों, परिजन-पुरजन भी जिनकी चिरविदाई की मानसिकता बना चुके हों। अपनी अन्तिम विदाई के इन महत्वपूर्ण क्षणों में भी क्या उन्हें अपने परलोक के विषय में विचार करने के बजाय इन व्यर्थ की बातों के लिए समय है? 5

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