Book Title: Samadhi aur Sallekhana
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 13
________________ २५ समाधि और सल्लेखना होने के पहले ही सल्लेखनाव्रत ले लेना चाहिए। - पुरुषार्थसिद्धिउपाय, गाथा-१७६ प्रश्न :- सल्लेखना स्वयं की मर्जी से लेना चाहिए या शास्त्रों में विधान है, इसलिए उसे लेना आवश्यक है? उत्तर :- इस सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्रकार ने मनोवैज्ञानिक समाधान किया है। वे कहते हैं - मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता । अर्थात् व्रती साधक स्वेच्छा से मरण समय प्रीतिपूर्वक सल्लेखना स्वीकार करता है। यहाँ पर सूत्र में प्रयुक्त 'जोषिता' शब्द का केवल 'सेवन करना' अर्थ नहीं लिया गया है, बल्कि प्रीतिपूर्वक सेवन करना अर्थ किया है; क्योंकि प्रीति के बिना सल्लेखना नहीं करायी जाती, किन्तु प्रीति के रहने पर स्वयं ही सल्लेखना ग्रहण करता है। शास्त्रों का विधान तो मात्र मार्गदर्शक है, जो व्यक्ति स्वयं अपने उत्साह से सल्लेखना धारण करेगा, पूरा लाभ से उसे ही मिलेगा। - सर्वार्थसिद्धि, ७/२२ सल्लेखना के अतिचार जीवितमरणाशसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि । अर्थात् जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबन्ध और निदान - ये सल्लेखना के पाँच अतिचार हैं। - तत्त्वार्थसूत्र, ७/३७ १. सल्लेखना धारण करके जीने की इच्छा करना, जीविताशंसा अतिचार है। २. सल्लेखना धारण करके रोगादि के उपद्रव होने पर आकुलव्याकुल होकर शीघ्र मरने की इच्छा करना मरणाशंसा अतिचार है। ३. सल्लेखना धारण करने के पश्चात् जिनके साथ में रहकर अनेक प्रकार के खेलों में मस्त रहा उन मित्रों का स्मरण करना, मित्रानुराग अतिचार है। समाधि और सल्लेखना ४. सल्लेखना धारण करके पूर्वकाल में भोगे हुए भोग शयनक्रीड़ा आदि का चिन्तवन करना सुखानुबन्ध अतिचार है। ५. सल्लेखना के काल में इस प्रकार इच्छा करना कि आगामी काल में विषय-भोगों की प्राप्ति हो, वह निदान अतिचार है। - अर्थप्रकाशिका, ७/३७, पृष्ठ २८६ सल्लेखना का महत्व और फल प्रश्न - सल्लेखना का महत्त्व और उसका फल क्या है? उत्तर - सल्लेखना के धारक स्वर्गों में अनुत्तर विमान में भोग भोगकर वहाँ से आकर उत्तम मनुष्यभव में जन्म धारणकर सम्पूर्ण ऋद्धियों को प्राप्त करते हैं। बाद में जिनधर्म के अनुसार तप आदि का पालन करते हैं। फिर शुक्ललेश्या की प्राप्ति करके वे आराधक शुक्लध्यान से संसार का नाश करते हैं और कर्मरूपी कवच को छोड़कर सम्पूर्ण क्लेशों का नाश कर मुक्त होते हैं। - भगवती आराधना, गाथा १९४२-१९४५ जिसने सल्लेखना धारण करके कषायों को कृश किया है, समताभाव धारण करके वीतरागी धर्मरूपी अमृत पान किया है - ऐसा धर्मात्मा साधक असंख्यातकाल तक स्वर्ग का महान ऋद्धिधारी देवपना भोगकर फिर मनुष्यों में उत्तम राजादि के वैभव पाकर, पश्चात् उन संसार-शरीर-भोगों से विरक्त होकर शुद्ध संयम अंगीकार करके निःश्रेयसरूप निर्वाण का आस्वादन करता है, अनुभव करता है। तात्पर्य यह है कि स्व शुद्धात्मा की आराधना अर्थात् निर्मल रत्नत्रय परिणति का होना समाधि है और उस समाधिपूर्वक देह का परित्याग करना समाधिमरण है। - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-४, पृष्ठ ३३७ सल्लेखना बाह्य स्वरूप : जब उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा अथवा असाध्य रोग आदि कोई ऐसी 13

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