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समाधि और सल्लेखना अनिवार्य परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसके कारण धर्म की साधना संभव न रहे तो आत्मा के आश्रय से कषायों को कृश करते हुए अनशनादि तपों द्वारा काय को भी कृश करके धर्म रक्षार्थ मरण को वरण करने का नाम ही सल्लेखना है। इसे ही मृत्यु महोत्सव भी कहते हैं।
प्रश्न :- मरण को महोत्सव कैसे कहा जा सकता है?
उत्तर :- जो मरण आत्मज्ञानपूर्वक हो; जो मरण, जन्म-मरण के अभाव के लिए हो; उसे महोत्सव कहने में कोई आपत्ति नहीं है। ज्ञानी जीवों के संसार में अनन्त भव तो होते ही नहीं हैं, थोड़े-बहुत भव ही शेष होते हैं, उनमें भी प्रत्येक मरण उन्हें मुक्ति के निकट ला रहा है; इस कारण उस मरण को महोत्सव कहना अनुचित नहीं है।
धर्म आराधक उपर्युक्त परिस्थिति में प्रीतिपूर्वक प्रसन्न चित्त से बाह्य में शरीरादि संयोगों को एवं अन्तरंग में राग-द्वेष आदि कषायभावों को क्रमशः कम करते हुए परिणामों में शुद्धि की वृद्धि के साथ शरीर का परित्याग करता है।
समाधि की व्याख्या करते हुए अनेक शास्त्रों में एक यही कहा गया है कि - ‘समरसी भावः समाधिः' समरसी भावों का नाम समाधि है। समाधि में त्रिगुप्ति की प्रधानता होने से समस्त विकल्पों का नाश होना मुख्य है।
सल्लेखना में जहाँ काय व कषाय कृश करना मुख्य है, वहीं समाधि में निजशुद्धात्म स्वरूप का ध्यान प्रमुख है। स्थूलरूप से तीनों एक होते हुए भी साधन-साध्य की दृष्टि से सन्यास समाधि का साधन है और समाधि सल्लेखना का साधन है; क्योंकि सन्यास बिना समाधि संभव नहीं और समाधि बिना सल्लेखना-कषायों का कृश होना संभव नहीं होता।
समाधि और सल्लेखना
सल्लेखना के आगम में कई प्रकार से भेद किए हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण इसप्रकार है -
नित्यमरण सल्लेखना :- अंजुलि के जल बिन्दुओं के समान प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्म के क्षय से जो जीवन निरन्तर मरण की
ओर अग्रसर है उसे नित्यमरण कहते हैं। तथा साथ द्रव्य (बाह्य) सल्लेखनापूर्वक विकारी परिणाम विहीन शुद्ध परिणमन नित्यमरण सल्लेखना है।
तद्भवमरण सल्लेखना :- भुज्यमान (वर्तमान) आयु के अन्त में शरीर और आहार आदि के प्रति निर्ममत्व होकर साम्यभाव से शरीर त्यागना तद्भवमरण सल्लेखना है।
काय सल्लेखना :- काय से ममत्व कम करते हुए काय को कृश करना; उसे सहनशील बनाना काय सल्लेखना है। एतदर्थ कभी उपवास, कभी एकाशन, कभी नीरस आहार कभी अल्पाहार (उनोदर)। - इसतरह क्रम-क्रम से शक्तिप्रमाण आहार को कम करते हुए क्रमशः दूध, छाछ गर्मपानी से शेष जीवन का निर्वाह करते मरण के निकट आने पर पानी का भी त्याग करके देह का त्याग करना काय सल्लेखना
भक्त प्रत्याख्यान सल्लेखना :- इसमें भी उक्त प्रकार से ही भोजन का त्याग होता है। इसका उत्कृष्ट काल १२ वर्ष व जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है।
कषाय सल्लेखना :- तत्त्वज्ञान के बल से कषायें कृश करना।
आगम में मरण या समाधि मरण के उल्लेख अनेक अपेक्षाओं से हुए हैं - उनमें निम्नांकित पाँच प्रकार के मरण की भी एक अपेक्षा है।
१. पण्डित-पण्डित मरण :- केवली भगवान के देह विसर्जन को पण्डित-पण्डित मरण कहते हैं। इस मरण के बाद जीव पुनः जन्म धारण नहीं करता।
१.उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतिकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु : सल्लेखनामार्याः ।।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार : आ. समन्तभद्र, श्लोक-१८२
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