Book Title: Samadhi aur Sallekhana
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Digambar Jain Vidwatparishad Trust

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Page 16
________________ समाधि और सल्लेखना शरणभूत है, अन्य अरहन्त आदि को तो निमित्त की अपेक्षा व्यवहार से शरण कहा है। अन्दर में जो भगवान ज्ञायक अतीन्द्रिय शान्ति का पिण्ड शुद्धात्मा है, उसमें एकाग्रता करना ही जीव को निश्चय से शरण है; जो अरहतादि पंच-परमेष्ठी की भक्ति इत्यादि शुभभाव होते हैं, उनसे पुण्य बंध होता है, अतः उन्हें व्यवहार से शरण कहा है। और हाँ, वे पंचपरमेष्ठी भी जीव को यही उपदेश देते हैं कि तुम अपने ज्ञानानन्द स्वभावी शुद्धात्मा की शरण में जाओ। वही एक मात्र शरणभूत है। इसप्रकार वे पंचपरमेष्ठी स्वयं भी शुद्धात्मा की शरण में क्षण-क्षण में जाते हैं और भव्य जीवों को भी शुद्धात्मा की शरण में जाने का उपदेश देते हैं। इसी कारण निमित्त बनने की अपेक्षा से वे व्यवहार से शरण कहे जाते हैं। पण्डित जयचन्दजी भी यहीं कहते हैं। प्रवचनसार में आता है कि 'हे भव्य जीव ! तुम स्याद्वाद विद्या के बल से विशुद्ध ज्ञान की कला द्वारा इस एक सम्पूर्ण शाश्वत स्वतत्त्व को प्राप्त करके आज ही परमानन्द परिणामरूप परिणमो... उस चित्तस्वरूप आत्मा को आज ही अनुभव करो।' हे भाई ! राग से भिन्न निज भगवान आत्मा की अनुभूति का उद्यम अभी से कर ! मरण आएगा, तब वह उद्यम करूँगा - ऐसा वायदा मत कर । यदि मूर्च्छित अवस्था में ही मरण हो गया तो सब वायदे धरे रह जायेंगे। अतः वायदा में कोई फायदा नहीं है। समयसार की पाँचवी गाथा में कहा है कि 'जदि दाएज्ज पमाणं' अर्थात् उस एकत्व-विभक्त शुद्ध आत्मा को दर्शाऊँ तो प्रमाण करना; सुनकर मात्र हाँ-हाँ नहीं करना; उसे स्वानुभव प्रत्यक्ष करके, उसकी अनुभूति करके प्रमाण करना। अहा! दिगम्बर सन्तों की सचोट भाषा और निष्कषाय करुणा तो देखो ! कहते हैं - ‘भगवान आत्मा आनन्द का सागर है, उसका समाधि और सल्लेखना अनुभव प्राप्त करने के लिए अभी से प्रयत्न करो।' घर जले, तब यदि कुआँ खोदे तो पानी कब निकले और कब आग को बुझावे, पानी निकले तब तक तो घर जल कर राख हो जाएगा, घर को आग से बचाना हो तो पहले से ही पानी की व्यवस्था रखना चाहिए। इसीप्रकार मौत आए तब नहीं, अपितु पहले से ही अर्थात् अभी से ही आत्मा की आराधना शुरू करने और आत्मा की अनुभूति प्राप्त करने का प्रयत्न कर ! जब से सुना हो, तभी से प्रयत्न प्रारम्भ कर दे। अहा! दिगम्बर सन्तों की वाणी पञ्चमकाल के अत्यन्त अप्रतिबुद्ध श्रोताओं से कहती है कि भाई! आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए अभी से शुरूआत कर दे। समयसार की ३८वीं गाथा की टीका में कहा है कि 'विरक्त गुरु से निरन्तर समझाये जाने पर दर्शन-ज्ञानचारित्रस्वरूप परिणत होकर जो सम्यक् प्रकार से एक आत्माराम हुआ है, वह श्रोता/शिष्य कहता है कि - 'कोई भी परद्रव्य, परमाणुमात्र भी मुझरूप भासित नहीं होता, जो मुझे भावकरूप तथा ज्ञेयरूप होकर फिर से मोह उत्पन्न करे, क्योंकि निजरस से ही मोह को मूल से उखाड़कर, फिर से अंकुरित न हो - ऐसा नाश करके, महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है। अहा ! पञ्चम काल का अप्रतिबुद्ध शिष्य-प्रतिबोध प्राप्त करके कहता है कि - 'हमको प्रगट हुआ ज्ञानप्रकाश अप्रतिहत है, भले ही क्षायोपशमिक भावरूप है तो भी अप्रतिहत होने से जोड़नी क्षायिक' है; इसलिए हमें पुनः मिथ्यात्व का अंकुर उत्पन्न होगा ही नहीं।' अरे! मौत आने पर यह देह, कुटुम्ब का मेला, धन, मकान, गाड़ी, वाड़ी इत्यादि सब छूट जाएगा। कोई दुःख की बेला में सहायक नहीं होगा। देह की स्थिति पूरी होने के नगाड़े बज रहे 16

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