Book Title: Sahityik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ १८ से कल्पित आगमों को अपनी इच्छानुसार पुस्तकारूढ़ किया गया ....... श्री संघाग्रहात् ....... विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाधिकान् त्रुटितात्रुटितान् आगमालोपकान् अनुक्रमेण स्वमत्या संकलय्य पुस्तकारूढान कृताः। ततो मूलतो गणधरभाषितानामपि तत्संकलनानन्तरं सर्वेषामपि आगमान् कर्ता श्री देवर्धिगणि क्षमाश्रमण एव जात:। पुनरुक्तियों को दूर करने की दृष्टि से बीच-बीच में अन्य आगमों का भी निर्देश किया गया। देवर्धिगणि ने इसी समय नन्दिसूत्र की रचना की तथा पाठान्तरों को चूर्णियों में संगृहीत किया। कल्याणविजय जी के अनुसार वलभी वाचना के प्रमुख नागार्जुन थे। उन्होंने इस वाचना को पुस्तक लेखन कहकर अभिहित किया है। सम्पादन की दृष्टि से चूर्णियाँ आदि बहुत उपयोगी हैं। दिगम्बर परम्परा में उक्त वाचनाओं का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसका मूल कारण यह प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर परम्परा के समान दिगम्बर परम्परा में अंगज्ञान ने कभी सामाजिक रूप नहीं लिया। वहां तो वह गुरु-शिष्य परम्परा से प्रवाहित होता हुआ माना गया है। २ वस्तुत: वह वाचनिक परम्परा बौद्धों की संगीति परम्परा की अनुकृति मात्र है। वाचनाओं के कारण आगम सुरक्षित रह सके, अन्यथा वे और भी विकृत हो जाते। श्रुत की मौलिकता उपर्युक्त वाचनाओं के माध्यम से श्वेताम्बर परम्परा ने दृष्टिवाद को छोड़कर समूचे आगम साहित्य को सुव्यवस्थित करने का यथाशक्य प्रयत्न किया। परन्तु दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। उसकी दृष्टि में तो लगभग सम्पूर्ण आगम साहित्य क्रमश: लुप्त होता गया। जो आंशिक ज्ञान सुरक्षित रहा उसी के आधार पर षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों की रचना की गई। पर इसे भी हम बिलकुल सत्य नहीं कह सकते। यह अधिक सम्भव है कि श्रुतागमों में किये गये परिवर्तनों को लक्ष्यकर दिगम्बर परम्परा ने उन्हें 'लुप्त' कह दिया हो और संघर्ष के क्षेत्र से दूर हो गये हों। डॉ० विण्टरनित्सरे भी समूचे आगमों को प्राचीन नहीं स्वीकारते। लगभग एक हजार वर्षों के बीच परिवर्तन-परिवर्धन होना स्वाभाविक है। बेचरदास दोसी ने मूलागम और उपलब्ध आगम में अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि बलभी में संगृहीत अंग साहित्य की स्थिति के साथ १. समय सुन्दरगणीरचित समाचारी शतक. २. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका, पृ. ५४३. ३. हिस्ट्री ऑफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ. ४३१-४३४. Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57