Book Title: Sahityik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 19
________________ ७. उवासगदसाओ इसमें दस अध्ययन हैं जिनमें क्रमश: आनन्द, कामदेव, चुलिनीप्रिय, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकौलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता और सालतियापिता इन दस उपासकों का चरित्र-चित्रण है। इन श्रावकों को पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन बारह अणुव्रतों का निरतिचार पूर्वक पालन करते हुए धर्मार्थ साधना में तत्पर बताया है। इसे आचारांग का परिपूरक ग्रन्थ कहा जा सकता है। गृहस्थाचार के विकास की दृष्टि से इसका विशेष महत्त्व है। ८. अंतगडदसाओ इस अंग में ऐसे स्त्री-पुरुषों का वर्णन है जिन्होंने संसार का अन्त कर निर्वाण प्राप्त किया है। इसमें आठ वर्ग हैं। हर वर्ग किसी न किसी मुमुक्षु से सम्बद्ध है। यहाँ गौतम, समुद्र, सागर, गम्भीर, गजसुकुमाल, कृष्ण, पद्मावती, अर्जुनमाली, अतिमुक्त आदि महानुभावों का चरित्र-चित्रण उपलब्ध है। पौराणिक और चरितकाव्यों के लिए ये कथानक बीजभूत माने जा सकते हैं। इसका समय लगभग २-३री शती होना चाहिए। ९. अणुत्तरोदवाइयदसाओ इस ग्रन्थ में ऐसे महापुरुषों का वर्णन है जो अपने तप और संयम से अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हुए और उसके बाद वे मुक्तिगामी होते हैं। यह अंग तीन वर्गों में विभक्त है। प्रथम वर्ग में २०, द्वितीय वर्ग में १३ और तृतीय वर्ग में १० अध्ययन हैं। जालि, महाजालि, अभयकुमार आदि दस राजकुमारों का प्रथम वर्ग में, दीर्घसेन, महासेन, सिंहसेन, आदि तेरह राजकुमारों का द्वितीय वर्ग में, और धन्यकुमार, रामपुत्र, वेहल्ल आदि दस राजकुमारों का भोगमय और तपोमय जीवन का चित्रण तृतीय वर्ग में मिलता है। यहां अनुत्तरोपपातिकों की अवस्था का वर्णन किया गया है। १०. पण्हवागरणाई इसमें प्रश्नोत्तर के माध्यम से परसमय (जैनेतरमत) का खण्डन कर स्वसमय की स्थापना की है। इसके दो भाग हैं। प्रथम भाग में हिंसादिक पाप रूप आश्रवों का और द्वितीय भाग में अहिंसादि पांच व्रत रूप संवर द्वारों का वर्णन किया गया है। इसी सन्दर्भ में मन्त्र, तन्त्र और चामत्कारिक विद्याओं का भी वर्णन किया गया है। सम्भवत: यह ग्रन्थ उत्तरकालीन है। Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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