Book Title: Sahityik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 21
________________ द्वितीय भाग में केशी और प्रदेशी के बीच जीव-अजीव विषयक संवाद का वर्णन है। इसमें दर्शन, स्थापत्य, संगीत और नाट्यकला की विशिष्ट सामग्री सन्निहित है। ३. जीवाभिगम __इसमें ९ प्रकरण और २७२ सूत्र हैं, जिनमें जीव और अजीव के भेद-प्रभेदों का विस्तृत वर्णन किया गया है। टीकाकार मलयगिरि ने इसे ठाणांग का उपांग माना है। इसमें अस्त्र, वस्त्र, धातु, भवन आदि के प्रकार दिये गये हैं। ४. पण्णवणा इस ग्रन्थ में ३४९ सूत्र हैं और उनमें जीव से सम्बन्ध रखने वाले ३६ पदों का प्रतिपादन है - प्रज्ञापना, स्थान, योनि, भाषा, कषाय, इन्द्रिय, लेश्या आदि। इसके कर्ता आर्य श्यामाचार्य हैं, जो महावीर परिनिर्वाण के ३७६ वर्ष बाद अवस्थित थे। इसे समवायांगसूत्र का उपांग माना गया है। वृक्ष, तृण, औषधियाँ, पंचेन्द्रियजीव, मनुष्य, साढ़े पच्चीस आर्य देशों आदि का वर्णन मिलता है। ५. सुरियपण्णत्ति ___ इस ग्रन्थ में २० पाहुड और १०८ सूत्र हैं, जिनमें सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की गति आदि का वर्णन मिलता है। इस पर भद्रबाहु ने नियुक्ति और मलयगिरि ने टीका लिखी है। ६. जम्बूदीवपण्णत्ति ___ यह ग्रन्थ दो भागों में विभाजित है -- पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध। पूर्वार्द्ध में चार और उत्तरार्द्ध में तीन वक्षस्कार (परिच्छेद) हैं तथा कुल १७६ सूत्र हैं जिनमें जम्बूद्वीप, भरतक्षेत्र, नदी, पर्वत, कुलकर आदि का वर्णन है। यह नायाधम्मकहाओ का उपांग माना जाता है। ७. चन्दपण्णत्ति ... इसमें बीस प्राभृत हैं और उनमें चन्द्र की गति आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है। इसे उवासगदसाओ का उपांग माना जाता है। ८. निरयावलिया निरयावलिया अथवा कप्पिया में दस अध्ययन हैं, जिनमें काल, सुकाल, महाकाल, कण्ठ, सुकण्ह महाकण्ह, वीरकण्ह, रामकण्ह, पिउसेणकण्ह और Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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