Book Title: Sahityik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 36
________________ और गिरिसेन के ९ भवों का सुन्दर वर्णन है। इसी कवि का धूर्ताख्यान (४८६ गा.) भी अपने ढंग की एक निराली कृति है जिसमें हास्य और व्यंग्यपूर्ण मनोरञ्जव कथायें निबद्ध हैं। जयराम की प्राकृत धम्मपरिक्खा भी इसी शैली में रची गई एक उत्तम कृति है। यशोधर और श्रीपाल के कथानक की आचार्यों को बड़े रुचिकर प्रतीर हुए। सिरिवालकहा (१३४२ गा.) को नागपुरीय तपागच्छ के रत्नशेखरसूरि । संकलित किया और हेमचन्द्र (सं. १४२८) ने उसे लिपिबद्ध किया। इसी वे आधार पर प्रद्युम्नसरि और विनयविजय (सं. १६८३) ने प्राकृत कथा-रचना की। सुकोशल, सुकुमाल और जिनदत्त के चरित भी लेखकों के लिए उपजीव कथानक रहे हैं। कतिपय रचनायें नारी पात्र प्रधान हैं। पादलिप्तसूरि रचित तरंगवईकहा इस प्रकार की रचना है। यह अपने मूलरूप में उपलब्ध नहीं पर नेमिचन्द्रगणि इसी को तरंगलोला के नाम से संक्षिप्त रूपान्तरित कथाओं (१६४२ गा.)। प्रस्तुत किया है। उद्योतनसूरि (सं. ८३५) की कुवलयमाला (१३००० श्लोव प्रमाण) महाराष्ट्री प्राकृत में गद्य-पद्य मयी चम्पू शैली में लिखी गई इसी प्रकार की अनुपम कृति है जिसे हम महाकाव्य कह सकते हैं। गुणपालमुनि (सं. १२६४ का इसिदत्ताचरिय (१५५० ग्रन्थाग्रप्रमाण), धनेश्वरसूरि (सं० १०९५) व सुरसुंदरीचरिय (४००१ गा.), देवेन्द्रसूरि (सं० १३२३) का सुदंसणाचरि (४००२ गा.) आदि रचनायें भी यहाँ उल्लेखनीय हैं। इन कथा-ग्रन्थों में नाम में प्राप्त भावनाओं का सुन्दर विश्लेषण मिलता है।। कुछ कथा ग्रन्थ ऐसे भी रचे गये हैं जिनका विशेष सम्बन्ध किसी पर पूजा अथवा स्तोत्र से रहा है। ऐसे ग्रन्थों में श्रुतपञ्चमी के माहात्म्य को प्रदर्शि करने वाला 'नाणपंचमीकहाओ' ग्रन्थ सर्वप्रथम उल्लेखनीय है। इसमें १० कथा और २८०४ गाथायें हैं। इन कथाओं में भविस्सयत्तकहा ने उत्तरकालीन आचा को विशेष प्रभावित किया है। इसके अतिरिक्त एकादशीव्रतकथा(१३७ गा.) आ ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं। लाक्षणिक साहित्य लाक्षणिक साहित्य से हमारा तात्पर्य है--- व्याकरण, कोश, छन्द, ज्योति निमित्त व शिल्पादि विधायें। इन सभी विधाओं पर प्राकृत रचनायें मिलती अणुयोगदारसुत्त आदि प्राकृत आगम साहित्य में व्याकरण के कुछ सिद्धान्त परिला होते हैं पर आश्चर्य की बात है कि अभी तक प्राकृत भाषा में रचा कोई भी प्रा Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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