Book Title: Sahityik Avdan
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Bharatiya_Sanskruti_me_Jain_Dharma_ka_Aavdan_002591.pdf

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Page 49
________________ और द्वाश्रय महाकाव्य (संस्कृत-प्राकृत मिश्रित), अरिसिंह का सुकृत संकीर्तन (वि०सं० १२७८), बालचन्द्रसूरि का वसन्तविलास (वि०सं० १३३४), नयचन्द्रसूरि का हम्मीर महाकाव्य (वि०सं० १४४०), जिनहर्षगणि का वस्तुपालचरित (वि०सं० १४९७), सर्वानन्द का जगडूचरित (वि०सं०.१३५०), प्रभाचन्द्र का प्रभावकचरित (वि०सं० १३३४), तथा मेरुतुंगसूरि का प्रबन्ध चिन्तामणि (वि०सं० १३६१), आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं। इन ग्रन्थों में वर्णित राजाओं ने जैनधर्म के प्रचार-प्रसार में पर्याप्त योगदान दिया है। इसी प्रकार अनेक प्रशस्तियाँ, पट्टावलियाँ गुर्वावलियाँ, तीर्थमालायें, शिलालेख, मूर्तिलेख आदि भी संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। कथा साहित्य जैनाचार्यों ने सम्भवत: कथा ग्रन्थों की सर्वाधिक रचना की है। यद्यपि ये कथायें घटना-प्रधान अधिक हैं, परन्तु उनमें एक विशेष लक्ष्य दिखाई देता है। यह लक्ष्य है - आध्यात्मिक चरम साधना के उत्कर्ष की प्राप्ति। इस सन्दर्भ में लेखकों ने आगमों में वर्णित कथाओं का आश्रय तो लिया ही है, साथ ही नीति कथाओं की पृष्ठभूमि में लौकिक कथाओं का भी भरपूर उपयोग किया है। हरिषेण का बृहत्कथा कोष (वि०सं०९५५), प्रभाचन्द्र तथा नेमिचन्द्र के कथाकोश, सोमचन्द्रगणि का कथा महादधि (वि०सं० १५२०), शुभशीलगणि का प्रबन्ध पञ्चशती, सकलकीर्ति आदि के व्रतकथाकोष, गुणरत्नसूरि का कथार्णव, अनेक कवियों के पुण्याश्रव कथाकोश आदि रचनायें श्रेष्ठ संस्कृत काव्य को प्रस्तुत करती हैं। इनमें तत्कालीन प्रचलित अथवा कल्पित कथाओं को जैन धर्म का पुट देकर निबद्ध किया है। धर्माभ्युदय, सम्यक्त्वकौमुदी, धर्मकल्पद्रुम, धर्मकथा, उपदेशप्रासाद, सप्तव्यसन कथा आदि कथात्मक ग्रन्थों में व्रत पूजादि से सम्बद्ध कथाओं का संकलन है। धर्मपरीक्षा नाम के भी अनेक कथा ग्रन्थ इसी विषय से सम्बद्ध मिलते हैं। सिद्धर्षि की उपमितिभवप्रपञ्चकथा (वि०सं० ९६२) तथा नागदेव का मदनपराजय (लगभग १५वीं शती) जैसे कुछ ग्रन्थ ऐसे भी प्राप्त होते हैं, जो रूपक शैली में कर्मकथा कहने का उपक्रम करते हैं। धर्म के किसी पक्ष को प्रस्तुत करने के लिए साहित्य अथवा इतिहास से किसी व्यक्ति का चरित उठा लिया गया और उसे अपने ढंग से प्रस्तुत कर दिया गया। यशोधर का चरित्र ऐसा ही क्रम है जो लेखकों को बड़ा प्रिय लगा। सोमदेव (१०वीं शती) ने उसे यशस्तिलकचम्पू में निबद्ध कर और भी रुचिकर बना दिया। दशों ग्रन्थ संस्कृत साहित्य में इस कथा का आधार लेकर रचे गये Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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