Book Title: Rushabhayan me Bimb Yojna
Author(s): Sunilanand Nahar
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ आवश्यक है। उनकी सूक्तियाँ, पुहावरे, सुंदर कल्पनाएँ एवं उपमाओं का संग्रह संकलन रूप में प्रकाशित हो जन-जन पर एक पहुँच रहा है। पाश्चात्य सिद्धांत के अनुसार बिम्ब-विधान के आधार पर ऋषभायण का शास्त्रीय विवेचन अभी तक नहीं हुआ है। प्रस्तुत श्रम इसी अभाव की पूर्ति का प्रयास है। आज का जीवन चिंतन ही नहीं बल्कि तार्किकता, बौद्धिकता व पाश्चात्य सम्पर्क से प्रभावित है। चारों ओर सुख-शांति ढूंढने की कोशिश में और ज्यादा अशांत होता जा रहा है। अतः अपने लक्ष्य में पहुँचने के लिए यह ऋषभायण ही एक समाधान है। स्वयं आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं-"हम दर्पण से परिचित हैं और प्रतिबिम्ब से भी परिचित हैं। बिम्ब से परिचित नहीं हैं, जिसे बिम्ब मान रहे हैं वह भी वास्तव में प्रतिबिम्ब है। शरीर बिम्ब नहीं है। बिम्ब है-'आत्मा अथवा चेतना' । प्रेक्षा एक दर्पण है उसमें अपना बिम्ब देखा जा सकता है। ऐसा दर्पण, जो प्रतिबिम्ब को नहीं लेता, केवल बिम्ब को ही बिम्बित करता है। हम इस प्रकार के दर्पण से भी परिचित नहीं है। हमें परिचित होना है और इसीलिए होना है कि हम स्वास्थ्य और शांतिपूर्ण जीवन जी सकें। __ अपने दर्पण का निर्माण और अपने बिम्ब का दर्शन। प्रेक्षा निर्जरा की प्रक्रिया है, जिससे पुराने संस्कार क्षीण हो सकें। प्रेक्षा-संवर का प्रयोग है, जिससे प्रतिबिम्ब पैदा करने वाले परमाणु चेतना के भीतर न आ सके। शोधन और निरोध तथा निरोध और शोधन इस श्रम का परिणाम है बिम्ब का दर्शन, साक्षात्कार।"1 (1. अपना दर्पण : अपना बिम्ब, आचार्य महाप्रज्ञ) अपना दर्पण: अपना बिम्ब के संपादकीय में संकलित है "बिम्ब है आत्मा। प्रतिबिम्ब है शरीर, वाणी और मन । आत्मा शरीर में है पर वह शरीर नहीं है। शरीर आत्मा की अभिव्यक्ति का स्रोत है पर आत्मा नहीं है। xxx बिम्ब को जानने के लिए प्रतिबिम्ब को जानना आवश्यक है और आवश्यक है प्रतिबिम्ब से परे जाना। बिम्ब के दर्शन का अर्थ है - आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध ।" व्यक्ति का जब जीवन मन से संचालित होता है तो वह स्वयं व दूसरों के लिए भारभूत होकर भयावह होने लग जाता है। जिस समाज में आवश्यकता सीमित लेकिन साधन असीमित होता है तब जीवन में उतनी समस्या महसूस नहीं होती परन्तु ठीक इसके विपरीत साधन सीमित व आवश्यकताएँ असीमित होने पर उस समाज के स्वस्थता की स्थिति संदिग्ध हो जाती है। ऐसे समय में आत्मा के संयम का अंकुश हर जन में लगना जरूरी है तथा श्रमनिष्ठा के प्रति हर इंसान का

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