Book Title: Ratnakarand Shravakachar Author(s): Samantbhadracharya, Aadimati Mata Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 4
________________ ( १२ ) से सम्यग्दृष्टि जीव अनंत संसार के कारणभूत बन्ध से बच जाता है। सम्यग्दृष्टि की कषाय का संस्कार छह माह से ज्यादा नहीं रहता यदि किसी के छह माह से अधिक कषाय का संस्कार बना है तो वह नियम से मिथ्याष्टि है। सम्यक्त्वी जीव अन्याय अभक्ष्य का त्यागी होता है यह भय आशा स्नेह लोभ से भी कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु को नमन नहीं करता है। सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए समंतभद्राचार्य ने कहा है कि सम्यग्दृष्टि की नरक में उत्पत्ति नहीं होती, हाँ यदि सम्यग्दर्शन होने के पहले नरकायु का बन्ध कर लिया तो वह प्रथम नरक के नीचे नहीं जाता है, यदि मनुष्य और तियंचाय का बंध हो गया तो भोगभूमि का मनुष्य-तिर्यच होगा कमभूमि का नहीं । सम्यग्दर्शन के काल में यदि मनुष्य व तिर्यंचों की आय का बन्ध होता है तो नियम से देवायु का ही बंध होता है । सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी गति की स्त्रीपर्याय में जन्म नहीं लेता। मनुष्य और तिर्यंचगति में नपुंसक भी नहीं होता, भवनत्रिक में पैदा नहीं होता, इस प्रकार सम्यग्दृष्टि का बाह्य आचरण और आंतरिक भावना बदल जाती है। सम्यग्ज्ञान-सम्यग्दर्शन के होते ही ज्ञान में भी समीचीनता आ जाती है, मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत सात तत्त्व बतलाए हैं उनका संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित जानना सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जो पदार्थों को न्यूनता रहित अधिकता रहित विपरीतता रहित ज्यों का त्यों संदेह रहित जानता है उसे आगम के ज्ञाता पुरुष सम्यग्ज्ञान कहते हैं । यह सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन के साथ ही होता है 1 जिस प्रकार सूर्य के उदित होते ही उसका प्रताप और प्रकाश एक साथ ही प्रकट होता है उसी प्रकार मिथ्यात्व के दूर होते ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक साथ उत्पन्न होते हैं फिर भी दीपक और प्रकाश के सदृश दोनों में कारण और कार्य की अपेक्षा भेद है । अर्थात् सम्यग्दर्शन कारण है और सभ्यरज्ञान कार्य है। यद्यपि सम्यग्दर्शन होने के पहले भी जीव में ज्ञान है किन्तु वह ज्ञान समीचीन नहीं है उसके द्वारा तत्त्वों का यथार्थस्वरूप नहीं जाना जा सकता । सभ्यग्दर्शन के होते ही जीव के अन्दर जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाने लगता है। सम्यग्ज्ञान के पांच भेद हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमें आदि के चार ज्ञान क्षायोपशमिकज्ञान हैं और अन्तका केवलPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 360